गोदान उपन्यास (Godan Upanyas) के आधार पर गोबर की विचार चेतना का विकास की समीक्षा

गोदान उपन्यास (Godan Upanyas)
गोबर की विचार चेतना [Gobar ki vichar Chetna]
IGNOU MHD - 03


गोबर की विचार चेतना [Gobar ki vichar Chetna] के विकास में प्रेमचंद्र की शोषण मुक्त समाज की परिकल्पना साकार होती नजर आती है"। इस कथन की गोदान उपन्यास (Godan Upanyas) के आधार पर समीक्षा कीजिए।

गोबर की विचार चेतना [Gobar ki vichar Chetna] का विकास:

गोदान उपन्यास (Godan Upanyas) में यदि होरी से पूछा जाए तो वह यही कहेगा कि लगान की अधिकता सबसे अधिक पीड़क है। धनिया सोचती है-- "यद्यपि अपने जीवन में कितने ही कतर ब्योत करें, कितनी ही पेट-तन काटो, चाहे एक- एक कौड़ी को दाँत से पकड़ो, मगर लगान बेबाक होना मुश्किल है"। फिर जमींदार का कारिन्दा कभी लगान की रसीद नहीं देता। इसलिए जब भी जमींदार किसी किसान को दंडित करना चाहता है, उस पर बकाया लगान का दावा कर देता है।

इस तरह दो-तीन बार लगान चुका देने के बाद एक स्थिति ऐसी आती है, जब किसान रुपए नहीं जुटा पाता और फिर उसे खेत से बेदखल कर दिया जाता है। उसके मौरूसी हक छीन लिए जाते हैं। इसी बीच गोबर कहता है, "मैं अदालत में तुमसे गंगाजली उठवाकर रूपए दूँगा, इसी गांव में एक सौ सहादतें दिलाकर साबित कर दूँगा कि तुम रसीद नहीं देंतें। सीधे-सादे किसान है, कुछ बोलते नहीं, तो तुमने समझ लिया कि सब काठ के उल्लू है"।

किसानों पर कर्ज लाद देना और इन्हें वसूल करने का अधिकार, जमींदार, कारिंदे, महाजन, सरकारी कर्मचारी, पटवारी, पुलिस, कचहरी, सभी के पास है और भारतीय किसान सबका नरम चारा बना हुआ है। प्रेमचंद्र मानते हैं कि किसी अच्छे या भले जमींदार से इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता क्योंकि जमींदार और महाजन एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, दातादीन ने होरी को तीस रूपए कर्ज दिए थे, जो अब दो सौ रूपए हो गए। गोबर कानून समेत सत्तर रुपए देना चाहता है।

इस पर पंडित दातादीन होरी को कहता है, "सुनते हो होरी, गोबर का फैसला? मैं अपने दो सौ छोड़ के सत्तर रुपए ले लूँगा, तो अदालत करूँगा। “गोदान उपन्यास” (Godan Upanyas) में होरी की बदहाली की कथा के द्वारा यह भी बताते हैं कि केवल ऊपरी सुधारों से किसानों का भला नहीं हो सकता।

किसानों की भलाई के लिए इस तंत्र को, पूरी व्यवस्था को बदलना जरूरी होगा। जमींदारी प्रथा को समाप्त किए जाने के लिए कानूनी प्रावधान भी समझ सकेंगे। जमींदार और महाजन कानून को लागू न होने देने की पूरी कोशिश करेंगे, क्योंकि इन सभी का स्वार्थ एक दूसरे से जुड़ा हुआ है।

जब तक रैयतवादी और इस्मतवारी जैसी शोषक प्रथाऍं कायम रहेगी, तब तक किसानों का आर्थिक, सामाजिक शोषण खत्म नहीं होगा। इस कल्पना को साकार होने का विश्वास उन्हें शहर में मजदूरी करके पेट पाल रहे गोबर के विचार चेतना में आये बदलाव के रूप में मिलता है।

"होरी" की परंपरागत मान्यता और अंधविश्वास को दूर करने की "गोबर" कोशिश करता है। कर्म और जन्म सिद्धांत की झूठी गढ़ी गई कहानी पर विश्वास करके अमीर-गरीब होने को भाग्य का लिखा मानकर चुपचाप शोषण को सहते जाना गोबर की चेतना को मान्य नहीं।

समाज के कुछ ठेकेदार अपने स्वार्थ के लिए समय-समय पर बहुजन समाज को धर्म के नाम पर लूटते जा रहे हैं। पाप-पुण्य की कल्पना, धर्म के आतंक और अंधविश्वास से घिरे होरी को इस सबसे बाहर निकालने का गोबर अपने कई तरीके प्रयास करता है, लेकिन होरी उसकी एक नहीं सुनता।

असमानता और भेदभाव को जन्म देने वाली इन विश्वासों का प्रेमचंद्र ने बार-बार गोबर के माध्यम से खंडन किया है। गांव से शहरों में मजदूरी की तलाश में जा बसे मजदूरों में स्वतंत्रता और समानता की चेतना का जागृत होना, नगरीकरण और औद्योगिकीकरण से संभव हो पाया है। गोबर जैसे किसान से मजदूर बनी नई पीढ़ी अधिक निश्चिंत, निर्भीक, समझदार और विद्रोही बन रही है।

“गोदान उपन्यास” (Godan Upanyas) में उपस्थित राष्ट्रीय आंदोलन:

“गोदान उपन्यास” (Godan Upanyas) में होरी कभी आंदोलित नहीं होता। वह किसानों की कुशल दबे रहने में मानता है। राय साहब को क्या दोष दें? भाग्य का खेल है, ऐसा सोचकर वह शांत रहता है। इसके बावजूद प्रेमचंद्र ने गोदान में किसानों को आंदोलन धर्मी चेतना का वर्णन नहीं किया है, वरन उनकी बदहाली बयान किया है।

वे “गोदान उपन्यास” (Godan Upanyas) में किसानों का आहवान नहीं करते, उन्हें प्रेरित नहीं करते कि वे उठकर इस व्यवस्था का अंत कर दें, वरन वे शिक्षित मध्यवर्ग को उत्साहित करते हैं। “गोदान उपन्यास” (Godan Upanyas) शिक्षित वर्ग को संबोधित हैं, इसमें उनकी न्याय चेतना को उकसाने का प्रयास किया गया हैं, ताकि यह वर्ग किसानों की हित चिंता के लिए संगठित प्रयास करें, इसलिए गोदान में किसानों की असहनीय पीड़ा का चित्रण हुआ हैं।

किसान जीवन में राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव:

होरी को इस राष्ट्रीय आंदोलन के बारे में कोई जानकारी नहीं है। गोबर अवश्य शहर में जाकर राजनीतिक एवं कानूनी रूप से परिचित हो गया है। गोबर के व्यक्तित्व के बारे में प्रेमचंद्र ने लिखा-- "सभाओं में आने-जाने से उसे कुछ-कुछ राजनीतिक ज्ञान भी हो चला है। राष्ट्र और वर्ग का अर्थ समझने लगा है। सामाजिक रूढ़ियों की प्रतिष्ठा और लोक- निंदा का भय अब उसमें बहुत कम रह गया है।

आय दिन पंचायतों ने उसे निसंकोच बना दिया है। जिस बात के पीछे वह यहाँ घर से दूर, मुँह छुपाए पड़ा हुआ है, बाते उसी तरह थी बल्कि उसमें भी कहीं निंदास्पद बातें यहाँ नित्य हुआ करती और कोई भागता नहीं"। इसी तरह से होली के अवसर पर गोबर जब गांव में आता है तथा मुखियों का मखौल उड़ाता है, तब होरी सोचता है-- "लड़के की अकल जैसे खुल गई है, कैसी बेलाग बात करता है"।

प्रेमचंद्र कहते हैं सरकार अगर असामियों को रुपए उधार देने का कोई बंदोबस्त नहीं करेगी, तो इस कानून से कुछ ना होगा। इसलिए महाजनी शोषण से मुक्ति के लिए बैंकों से कम ब्याज पर कर्ज की व्यवस्था करनी होगी। गोदान के किसानों की कमाई का बड़ा भाग महाजनों का कर्ज चुकाने में खर्च हो जाता हैं। यदि होरी गोबर की तरह सोचता तो न इतनी परेशानियां उठानी पड़ती और ना ही बिरादरी को डाँड़ देना पड़ता। इस तरह गोदान में हम देखते हैं कि गोबर की विचार चेतना के विकास में सामाजिक परिकल्पना साकार होती नजर आती हैl

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