अनुवाद की प्रक्रिया | IGNOU MHD – 07 Free Solved Assignment

अनुवाद की प्रक्रिया

IGNOU MHD – 07 Free Solved Assignment

‘अनुवाद’ शब्द संस्कृत भाषा का है । ‘अनु’ का अर्थ है पीछे चलना और ‘वाद’ का अर्थ है बोलना । ‘शब्दार्थ चिंतामणि’ कोश में इसका अर्थ दिया गया है । ‘प्राप्तस्य पुन:कथने’ ( पहले कहे गए को फिर से कहना और ‘ज्ञातार्थस्य प्रतिपादने’ ( ज्ञात अर्थ को प्रतिपादित करना ) अर्थात पहले कही हुई किसी बात को समझकर पुनःप्रस्तुत करते हैं, तो वह अनुवर्ती कथन या अनुवाद है । ‘अनुवाद’ का अर्थ एक भाषा की पाठ्यसामग्री को दूसरी भाषा की पाठ्यसामग्री में समतुल्य द्वारा प्रतिस्थापित करना ही अनुवाद है ।अर्थात एक भाषा के कथ्य को दूसरी भाषा में प्रतिस्थापित करने को ही अनुवाद कहते हैं ।

परिभाषाओं से स्पष्ट है कि एक बार कही हुई बात को दूसरे शब्दों में फिर से कहना ही अनुवाद है । जहाँ ‘अनुवाद’ की प्रक्रिया दो भाषाओं के बीच होती हैं, वहाँ जिस भाषा से अनुवाद किया जाता है, उसे स्रोत भाषा या मूल भाषा तथा जिस भाषा में अनुवाद किया जाता है, उसे लक्ष्य भाषा कहा जाता है ।

“अनुवाद की प्रक्रिया”  के अंतर्गत स्रोत भाषा की शब्दावली, संरचनाओं तथा अभिव्यक्तियों को लक्ष्य भाषा की शब्दावली, संरचनाओं  तथा अभिव्यक्तियों द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया जाता है, इस प्रकाश स्रोत भाषा के संदेश को लक्ष्य भाषा में संप्रेषण किया जाता है । इस प्रतिस्थापन की प्रक्रिया में बाह्य अभिव्यक्त के स्तर पर फेरबदल होता है, किंतु अर्थ के स्तर पर किसी भी प्रकार का अंतर नहीं होता है । आर्थी स्तर पर समतुल्य ही अनुवाद का लक्ष्य है, इसलिए अनुवाद की प्रक्रिया मुख्य रूप से अर्थ के ग्रहण तथा संप्रेषण की प्रक्रिया हैं ।

अनुवादक द्वारा स्रोत भाषा के पाठ को पढ़कर उसका अनुवाद प्रस्तुत करने के बीच इस प्रक्रिया के जो  विभिन्न चरण होते हैं । उसे हम तीन चरणों में विभक्त कर सकते हैं :—-

(i) पाठ – विश्लेषण :

अनुवादक स्रोत भाषा के पाठ को ध्यान से पढ़कर  उसका सामान्य अर्थ ग्रहण करने की चेष्टा करता है। जहाँ पाठ के संपूर्ण आशय के ग्रहण के लिए मात्र  वाच्यार्थ पर्याप्त नहीं होता, वहाँ अनुवादक गहराई में जाकर पाठ का विश्लेषण करता है ।

ध्वनियों, वर्तनी, शब्दों, शब्दरूपों, मुहावरों, विशिष्ट अभिव्यक्तियों या वाक्य संरचनाओं के माध्यम से रचनाकार पाठ में विशिष्ट अर्थ भरता है । इस प्रकार के विशिष्ट अर्थ का द्योतन लाक्षणिक तथा व्यंजक प्रयोगों के द्वारा भी हो सकता है और वाक्य संरचना के माध्यम से भी । वाक्य के बाह्य स्तर से उसका आशय स्पष्ट नहीं होता । ऐसा द्वयर्थक  शब्दों के प्रयोग के कारण भी हो  सकता है या कथन की अस्पष्टता के कारण भी ।

(ii) अंतरण या संक्रमण :

विश्लेषण के द्वारा अनुवाद्य पाठ के संपूर्ण अर्थग्रहण के बाद अनुवादक उस सामग्री का लक्ष्य भाषा में प्रतिस्थापन करने की चेष्टा करता है। इस चेष्टा के अंतर्गत वह लक्ष्य भाषा में स्रोत भाषा के शब्दों, मुहावरों, वाक्यों आदि के समुचित पर्याय ढूंढता है ।

वह लक्ष्य भाषा में शैली तथा शिल्प के स्तर पर भी ऐसी अभिव्यक्तियों  की तलाश करता है जो स्रोत भाषा की शैली के निकट हों और उससे अभिहित  आशय का वहन कर सकें । इसके लिए अनुवादक को भाषा ही नहीं, उसकी तमाम बारीकियों और गहराइयों की भी जानकारी होनी चाहिए । साथ ही उसे पाठ की विषयवस्तु तथा पृष्ठभूमि का भी ज्ञान  होना चाहिए ।

(iii) पुनर्गठन :

यदि पाठ विश्लेषण का चरण विकोडीकरण था, तो इस चरण को पुनःकोडीकरण कहा जा सकता है ।संक्रमण वाले चरण में अनुवादक भाषा प्रतिस्थापन के जिन विकल्पों को चुनता है, इस चरण में उन्हीं को वह व्यवस्थित रूप से भाषाबद्ध करता है ।

स्रोत भाषा के पाठ की अर्थ  उद्दिष्ट प्रभाव की रक्षा करते हुए भी वह विषयानुरूप ऐसी शब्दावली, पदक्रम, भाषा संरचना,  विशिष्ट अभिव्यक्तियों तथा शैली का प्रयोग करें जो लक्ष्य भाषा में सहज और तथा स्वाभाविक प्रतीत हों । कई बार स्रोत भाषा वाली संरचना या अभिव्यक्ति के स्वरूप में भी फेर – बदल करना पड़ता है ।

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