भारतीय भाषा चिंतन परंपरा के महत्व पर विचार कीजिए | IGNOU MHD – 07 Free Solved Assignment

भारतीय भाषा चिंतन परंपरा के महत्व पर विचार कीजिए । (15 )

उत्तर : भारतीय भाषा चिंतन :

भारत में भाषा चिंतन वेदों की रचना के साथ – साथ शुरू हुआ । जहाँ वेदांगों में उच्चारण, शब्दार्थ, छंद  आदि संबंद्ध प्रमुख विषय है । प्राचीन भारतीय भाषा विज्ञान से ही आज के पश्चिमी जगत के आधुनिक भाषाविज्ञान का सूत्रपात्र हुआ है । भाषाविज्ञान का क्षेत्र अति विस्तृत है । “भाषा वाक् ध्वनियों से निर्मित यादृच्छिक प्रतीकों की वह व्यवस्था है, जिसमें मानव परस्पर विचारों का आदान प्रदान करते हैं ।” इस परिभाषा के अनुसार भाषा एक व्यवस्था या संरचना है, जो ध्वनियों पर आधारित है और जिसके प्रमुख घटक है प्रतीक ( शब्द )।

परिभाषा का दूसरा पहलू संप्रेषण है । भाषा चिंतन और मानसिक विकास का साधन है, भाषा सांस्कृतिक संप्रेषण का माध्यम है । ये चिंतन का विषय तब बनते हैं, जब कोई भाषा कालत: देशत: या सांस्कृतित:  उनसे दूरस्थ हो । दिभाषिकतावत् स्थिति में अनेक प्राचीन सभ्यताओं में न्यूनाधिक भाषा चिंतन हुए थे ।भारतीयों के जीवन में वैदिक मंत्रों का व्यवहार एवं प्रयोग अपरिहार्यता रही है । वैदिक भाषा कालत: एक दूरस्त या अतिदूरस्त भाषा थी और उसके प्रगाढ़  परिचय के लिए वैदिक भाषा का अतिगंभीर और व्यापक चिंतन – मनन अतिआवश्यक है ।

(i) वाक् :

ऋग्वेद संहिता से लेकर ‘भाषा’ के लिए सर्वाधिक प्रयुक्त शब्द ‘वाक्’ है । वाक् की संकल्पना भारतीय चिंतन में बड़ी विचित्र है । वाक् नित्य हैं, वाक् ब्रह्म है, ‘वाग वै विराट् , वाग् वै सरस्वती,…….वाग् वै मती: , वा वै धी: …… और वाक् के तीन स्तरों के रूप में द्युलोक, अंतरिक्ष और पृथ्वी की कल्पना की गई है ।वाक् ही देवताओं की धारिका और प्रेरिका शक्ति है ।वाक् हमारी भाषाई अभिव्यक्ति शक्ति है, यह वह नैसर्गिक शक्ति है, जिससे हम कोई वाचिक अभिव्यक्ति कर सकते हैं । वाक् के चार रूप है — परा, पश्चयंति, मध्यमा और वैखरी ।

वाक् का पहला रूप “वैखरी” है । वैखरी भाषा का वह रूप है, जिसे हम सुनते या  बोलते हैं । मुखोच्चरित ध्वनियों के माध्यम से बाहर आने वाली भाषा है । वैखरी भाषा विभिन्न उच्चारण स्थानों में वायु के अवरोध से उत्पन्न होती है । इसमें वर्णों की पृथक –  पृथक सत्ता रहती है और इसका संबंध सीधा वक्ता की श्वास प्रक्रिया से होता है ।

वाक् का दूसरा रूप “मध्यमा” है । हमारा मस्तिष्क कुछ ना कुछ सोचता रहता है और वह भाषा के माध्यम से ही सोचता है इस आंतरिक मनोगत भाषा को मध्यमा कहा गया है । मध्यमा भाषा के केवल प्रयोक्ता की बुद्धि में रहती है । उसकी आंतरिक भाषा ध्वनियों में क्रम रहता है । मध्यमा में श्वास प्रक्रिया से कोई संबंध नहीं होता है । इस प्रकार मध्यमा मनोगत वाक् है ।

वाक्  का तीसरा रूप “पश्यन्ती” है । पश्यंति मध्यमा से पूर्व की वाक् अवस्था है । भाषा की पश्यन्ती अवस्था में उसकी ध्वनियों या पदों में कोई क्रम नहीं रहता,  इसीलिए उसका किसी भी दृष्टि से विभाजन या विश्लेषण संभव नहीं है ।

पश्यंति एक भाषाहीनता की स्थिति है । पश्यंति भाषा की अवस्था में मनुष्य को अपना आंतरिक ज्योतिर्गमय स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। पश्यंति हृदयगामिनी है,  सूक्ष्म स्वरूप है । यह वैखरी तथा मध्यमा की भाँति भाषा विशेष से तो बद्ध नहीं है किंतु भाषा से मुक्त भी नहीं है ।

वाक् का चौथा रूप “परा” पुर्णतया सबसे मुक्त है ।सायण के अनुसार, यह ‘एक’ है, नादरूपा है, मूलाधार में उदित होती है, और “परा” है । यह वागद्वैतवाद का अनुपम उदाहरण है —- यहाँ न कोई देखने वाला है, न दिखाई पड़ने वाला, न कोई ज्ञाता है, न जानने योग्य कोई वस्तु । यहाँ नामरूपात्मक सृष्टि का भी भेद नहीं है । यहाँ तक कि ज्ञाता का व्यष्टिपरक रूप भी नहीं रहता है ।

(ii) वाक्य :

भारतीय चिंतन में वाक् का एक प्रर्यायवत् पद ‘शब्द’ है । इसे भी ब्रह्म माना जाता है अर्थात शब्द ब्रह्म के समान अंतिम और मौलिक यथार्थ है । ‘शब्द’ आत्मा या जीव या व्यक्ति – चेतना के लिए प्रयुक्त होता है और इस प्रकार व्यक्ति की भाषा उसकी संपूर्ण चेतना या उसके संपूर्ण ‘स्व’ की अभिव्यक्ति है । शब्द की लघुतम इकाई वाक्य है । यह भी अपने स्तर पर अखंड है । यद्यपि भाषा विश्लेषण की दृष्टि से वाक्य को पदों का समूह कहा जाता है । वाक्य पदसमूह है, पदों के माध्यम से ही वाक्यार्थ ज्ञान होता है ।

(iii) क्रिया की संकल्पना :

भारत के प्राचीन भाषा चिंतकों ने “क्रिया की संकल्पना” की विवेचना किया है । पहली महत्वपूर्ण संकल्पना यह है कि वाक्य में धातु से निर्दिष्ट ‘क्रिया’  अनेक अनुक्रमिक क्रियाओं के समूच्चय का संघ है अर्थात प्रत्येक क्रिया अनेक अवयवभूत या गौण क्रियाओं से मिलकर बनती है । उपक्रियाएं  क्रमश: एक के बाद निष्पत्ति को प्राप्त करती है और अंत में मुख्य क्रिया निष्पन्न होती है, किंतु सामान्य व्यक्ति इन सब उपक्रियाओं अथवा गौण क्रियाओं की भिन्नताओं की उपेक्षा करता है और अभेद करते हुए एक मुख्य क्रिया का नाम देता है ।

एक अन्य महत्वपूर्ण संकल्पना यह है कि क्रियाओं की दो स्थितियाँ होती है ये है —- साध्या और सिद्धा ।सिद्धा स्थिति वह स्थिति है, जिसमें क्रिया व्यापार निष्पन्न हो चुका है, किंतु सिद्धा स्थिति के पूर्व एक कालव्यापी साध्या स्थिति है, जिसमें क्रिया उत्पन्न या आरंभ होती है, क्रिया अपरिवर्तित रूप में कुछ क्षण विद्यमान रहती है । क्रिया में फिर परिवर्तन होना शुरू हो जाता है, फिर क्रिया में वृद्धि आ जाती है, वृद्धि के शिखर पर पहुँचने के बाद वह ढलने लगती है, और अंत में क्रिया समाप्त, विरामवस्था या विनाश को प्राप्त होती है । सभी क्रियाएं इस प्रकार छह स्थितियों से गुजरती है ।

एक अन्य महत्वपूर्ण संकल्पना ‘फल’ और ‘व्यापार’ की है । भारतीय प्राचीन भाषा चिंतन में धातु के ‘व्यापार’ और ‘फल’ के दो अर्थ होते हैं । ‘व्यापार’ का आश्रय ‘कर्ता’ होता है और उस व्यापार से उत्पन्न ‘फल’ का आश्रय ‘कर्म’ होता है । सामान्य भाषा में ‘फल’ वह है, जिसकी प्राप्ति का उद्देश्य बनाकर व्यक्ति किसी कार्य में प्रवृत्त होता है । और इस फल की प्राप्ति के लिए व्यक्ति जो कार्य करता है वह क्रिया व्यापार है । ‘व्यापार’ क्रिया की  साध्यावस्था से जुड़ा है और ‘फल’ क्रिया की सिध्दावस्था से जुड़ा है । ‘व्यापार’ तो एक ही है किंतु फल की भिन्नता से पृथक पृथक धातुओं का प्रयोग होता है ।

(iv) पद विचार :

वाक्य की प्रकृति स्पष्ट करते हुए यह संकेत दिया गया था कि ‘शब्द’ अखंड है फिर भी विश्लेषण सोकर्य के लिए वाक्य- पद -प्रकृति प्रत्ययों की संकल्पना की जाती है । पदों का समूह वाक्य बनाता है किंतु पद स्वयं प्रकृति प्रत्ययों से बनते हैं ।

पाणिनीय सूत्र ‘सुप्तिड़न्त पदम’ पद के स्वरूप को स्पष्ट करता है । सभी पद विभक्ति प्रयत्न होते हैं — पदों में एक अंश ‘प्रकृति’ कहा जाता है, और दूसरा अंश प्रत्यय कहलाता है ।

व्युत्पत्ति निरूपण के क्षेत्र में जितना व्यापक एवं गंभीर चिंतन-मनन प्राचीन  मनीषियों द्वारा हुआ है उतना किसी भी देश या भाषा में आज तक नहीं हुआ है । यह एक व्यवहारिक अनिवार्यता है । सर्वप्रथम निघण्टु में कठिन और अपरिचित शब्दों के सही – सही अर्थ ढूंढ निकालने का प्रयास किया गया है ।

निरुक्त ज्ञान – विज्ञान की वह शाखा थी, जो शब्दों की व्याख्या अथवा निर्वाचन  करती है । निर्वाचन के दो पक्ष होते हैं — ‘शब्द’ और ‘अर्थ’ । शब्द का व्युत्पत्ति  नियमों के द्वारा प्रकृति और प्रत्ययों में विभाजन किया जाता है और तत्पश्चात् वेद मंत्रानुकूल अर्थ स्पष्ट किया जाता है ।

(v) ध्वनि विवेचन :

ध्वनि विज्ञान का जितना गंभीर और व्यापक अध्ययन भारत में हुआ है उतना निश्चयत: अन्यत्र नहीं हुआ है ।छह वेदांगों में एक ‘शिक्षा’ का विषय ध्वनिविज्ञान है ।शिक्षा और प्रतिशाक्य ग्रंथों में आज से लगभग दो- ढाई हजार साल पहले बोलने की प्रकिया, उच्चारण- अवयव, उच्चारण प्रक्रिया, ध्वनियों का वर्गीकरण, उच्चारण स्थान एवं प्रयत्न, मात्रा-काल, स्वराघात, स्वरसंधि के अतिरिक्त वैदिक ऋचाओं की वाचन रीति  तथा उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के साथ-साथ  हस्तसंचालन के संबंध में विशद विवेचन है ।

सारांश :

भारतीय मनीषियों ने वाक् को उच्चारित भाषा में से अधिक व्यापक अर्थ में लिया है । वाक् के चार रूप है  — परा, पश्यंति, मध्यमा और वैखरी । इनमें केवल वैखरी प्रत्यक्ष रूप से दिखाई पड़ने वाली भाषा है, शेष  सबका संबंध मन के विचारों के प्रस्फुटन से है ।इस तरह उन्होंने वाक् को व्यापक, दार्शनिक धरातल पर प्रस्तुत किया है । वाक् को शब्द भी कहा जाता है और भारतीय चिंतक शब्द को ब्रह्म कहते हैं । इस अर्थ में भाषा केवल विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं, बल्कि संपूर्ण सृष्टि तथा चेतना की अभिव्यक्ति है ।

भारतीय चिंतकों ने कार्य व्यापार की सत्ता को वस्तु जगत के सत्य से जोड़ा है । क्रिया के निष्पादन में ये किस तरह साधन के रूप में काम करते हैं । पदों की रचना ‘प्रकृति’ और ‘प्रत्यय’ के योग से होती है । अर्थ की प्रकृति, अर्थ ग्रहण की प्रक्रिया, अनेकार्थता की स्थिति में अर्थनिश्चय आदि अनेक महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ  है ।

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