बिहारी की भाषा (Bihari ki Bhasha), IGNOU MHD – 01 (हिंदी काव्य)

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बिहारी की भाषा (Bihari ki Bhasha)

IGNOU MHD – 01 (हिंदी काव्य)

5.(ख) बिहारी की भाषा

उत्तर : बिहारी की भाषा :

बिहारी रीतिकाल के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि हैं। बिहारी की भाषा ब्रजभाषा है। उनके समय तक  ब्रजभाषा साहित्य की भाषा के रूप में स्वीकृत हो चुकी थी, और बिहारी की भाषा को हम अपेक्षाकृत शुद्ध ब्रजभाषा कह सकते हैं। उनके समय में ब्रजभाषा का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत हो चुका था । इनकी भाषा चलती हुई ब्रजभाषा का साहित्य रूप है। उनका शब्द गठन और वाक्य – विन्यास पर्याप्त सुव्यस्थित है।

बिहारी ने सबसे पहले शब्दों की एकरूपता और प्रजंलता पर ध्यान दिया है और भाषा में परिष्कार का मार्ग प्रशस्त किया। साहित्यिक ब्रजभाषा का रूप इनकी ही कविता में सर्वप्रथम निखार को प्राप्त हुआ। बिहारी की एकमात्र कृति “सतसई” है और यह इस बात का प्रमाण है कि किसी कवि की श्रेष्ठता का अंतिम कसौटी उसके कृतित्व का परिमाण नहीं, गुण ही है, केवल चौदह सौं से कुछ पंक्तियाँ लिखकर बिहारी ने जो यश अर्जित किया, वह बहुतेरे चौदह हजार पंक्तियों के रचयिता के लिए दुर्लभ है।

बिहारी की भाषा में बुंदेलखंडी और पूर्वी का प्रभाव है । तुक के आग्रह और प्रयोग बाहुल्य के कारण पूर्वी के प्रयोग हुए हैं। बुंदेलखंडी का प्रयोग शैशव के अभ्यास के कारण सहज रूप में आए हैं । कहीं-कहीं अरबी – फारसी के शब्दों का प्रयोग भी मिलता है। बिहारी के काव्य भाषा में नाद – सौंदर्य है वह माधुर्य गुण संपन्न है। भाषा के अलंकरण के लिए बिहारी ने यमक, अनुप्रास, वीप्सा आदि शब्दालंकारों का प्रयोग किया गया है। इसलिए बिहारी को भाषा का पंडित कहना चाहिए ।

भाषा की दृष्टि से बिहारी की समता करने वाला, भाषा पर वैसा अधिकार रखने वाला कोई मुक्तककार नहीं दिखाई पड़ता है । बिहारी ने केवल दो छंदों का प्रयोग किया है – दोहा और सोरठा । ये दोनों 48 मात्रा के छंद हैं और परस्पर सम्बद्ध हैं । बिहारी अपने दोहे में भाव – सुषमा को चित्रित करते रहे हैं । बिहारी के काव्य की एक बड़ी उपलब्धि है अलंकारों का निपुण प्रयोग। ‘असंगति’ अलंकार का यह बेजोड़ उदाहरण –

दृग उरझत टूटत कुटुम, जुरत चतुर चिर प्रीति।

परत गाँठ दुरजन हिए, दई नई यह रीति।।

“उलझते हैं नेत्र, टूटता है कुटुम्ब! प्रीति जुड़ती है चतुरों के चित्त में, और गाँठ पड़ती है दुर्जन के हृदय में! प्रेम की यह अनोखी रीति है ।”

बिहारी का शायद ही कोई ऐसा दोहा हो, जिसमें किसी न किसी अलंकार का प्रयोग ना मिले । कहीं-कहीं तो एक साथ पाँच – छह अलंकार लिपटे हुए दिख पड़ेंगे ।

“हौं रीझी लखि रीझिहौ, छबिहि छबीले लाल।

सोनजूही सी होत दुति, मिलत मालती माल।।

बिहारी अलंकारवादी नहीं थे, उन्होंने स्वच्छंद रूपों से अलंकारों का प्रयोग किया है। यमक अलंकार का एक उदाहरण –

“तो पर वारौं उरबसी सुधि राधिके सुजान। तू मोहन के उरबसी हवै उरबसी समान।”

रीतिकाल में मुख्यत: तीन संप्रदाय प्रचलित थे – अलंकार, रस और ध्वनि। बिहारी आलंकारिक चमत्कार के अनावश्यक मोह से कहीं भी ग्रस्त नहीं हुए। बिहारी ने अलंकारों का उपयोग साधन के रूप में किया है, साध्य रूप में नहीं। बिहारी में रमणीय प्रसंगों की उद्भावना और संयोजन में जितने पटु है, भाषा के चुस्त प्रयोग में भी उतने ही सुदक्ष ।

इसलिए वे दोहे की छोटी सी जमीन पर इतने करिश्मे दिखा सके हैं, जैसे नट कूदकर छोटी – सी कुंडली से शीघ्रता से निकल जाता है ।

जैसे –

“सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर ।

देखन में छोटे लगैं, बेधैं सकल सरीरा” ।।

बिहारी की काव्य भाषा में समाज शक्ति पूर्ण रूप में विद्यमान हैं । इसके कारण काव्य भाषा में अद्भुत कसावट आ गई हैं । थोड़े में बहुत अधिक कर देना बिहारी का बहुत बड़ा कौशल है और यही उनकी सफलता का रहस्य भी है ।

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