हिंदी के स्वर और व्यंजन ध्वनियों का परिचय दीजिए । (15)
उत्तर : हिंदी के स्वर और व्यंजन ध्वनियां :
“स्वर” वे ध्वनियां हैं जिनके उच्चारण में वायु मुख से बिना किसी अवरोध के बाहर निकल जाती है । हिंदी में अ, आ, इ, ई, उ, ऊं, ए, ऐ, ओ, औ स्वर ध्वनियां है ।
“व्यंजन” ध्वनियों के उच्चारण में उच्चारण अवयवों के द्वारा मुख के ऊपरी जबड़े में विभिन्न स्थानों पर वायु का मार्ग अवरुद्ध किया जाता है । हिंदी में क से लेकर ह तक सभी व्यंजन ध्वनियाँ हैं ।
हिंदी की स्वर ध्वनियाँ तथा उनका वर्गीकरण :
हिंदी स्वरों का वर्गीकरण निम्नलिखित आधारों पर किया जाता है :
(i) जीभ का कौन सा भाग उच्चारण में भाग ले रहा है। स्वरों के उच्चारण में जीभ का अग्र, मध्य और पश्च भाग ऊपर – नीचे उठता है । इस आधार पर स्वरों के तीन भेद हो जाते हैं :
(क) अग्र स्वर — इ, ई, ए, ऐ, एं
(ख) मध्य स्वर — अ
(ग) पश्च स्वर — उ, ऊ, ओ, औ, आं
(ii) मुँह किस मात्रा में खुलता तथा बंद होता है । मुँह के खुलने तथा बंद होने की मात्रा के अनुसार स्वरों के निम्नलिखित भेद हो जाते हैं :
(क) संवृत : मुँह प्राय: बंद या बहुत कम खुलता हो — इ, ई, उ, ऊ
(ख) विवृत : सबसे अधिक खुला हुआ हो — आ
(ग) अर्ध संवृत : ‘संवृत’ स्थिति की तुलना में अधिक खुलता हो — ए, ओ
(घ) अर्ध विवृत : ‘विवृत’ स्थिति की तुलना में कम खुलता हो — ऐ, औ
(iii) ओठों की गोलाकार / अगोलाकार स्थिति के आधार पर होता हो । जिन स्वरों के उच्चारण में ओठ गोल हो जाते हैं उन्हें ‘वृत्ताकार’ तथा जिनमें चपटे रहते हों उन्हें ‘अवृत्ताकार’ स्वर कहे जाते हैं :
(क) वृत्ताकार — उ, ऊ, ओ, औ, आं
(ख) अवृत्ताकार — अ, आ, इ, ई, ए, ऐ, एं
हिंदी की व्यंजन ध्वनियाँ तथा उनका वर्गीकरण :
हिंदी की व्यंजन ध्वनियाँ अवरोधी होती है। व्यंजनों का वर्गीकरण दो आधारों पर किया जाता है — अवरोध किस स्थान पर होता है और अवरोध उत्पन्न करने वाला अंग किस तरह का प्रयत्न करता है ।
स्थान या उच्चारण स्थान से तात्पर्य ऊपरी जबड़े के उन स्थानों से हैं, जहाँ उच्चारण अवयव जीभ या निचला ओंठ ऊपर जाकर फेफड़ों से आने वाली वायु का अवरोध करते हैं । इस दृष्टि से ऊपरी ओंठ, ऊपरी दाँत, दंतमूल, कठोर तालु, मूर्धा, कोमल तालु या कंठ तथा स्वर यंत्र प्रमुख उच्चारण स्थान है । ऊपरी ओठ तथा ऊपरी दाँत वे स्थान है जहाँ निचले ओंठ द्वारा अवरोध उत्पन्न किया जाता है जबकि शेष स्थानों पर जिहृवा द्वारा अवरोध किया जाता है । इस अवरोध की प्रक्रिया में जिहृवा की नोक, जिहृवा का अग्र, मध्य तथा पश्च भाग हिस्सा ले सकते हैं ।
(i) हिंदी व्यंजनों का स्थान के आधार पर वर्गीकरण :
कंठ्य या कोमल तालव्य — क, ख, ग, घ, ङ
तालव्य — च, छ, ज, झ, ञ
मूर्धन्य — ट, ठ, ड, ढ, ण, ड़, ढ़, ष
दन्त्य — त, थ, द, ध, न
वत्स्र्य — स, ज़, र, ल
ओष्ठय — प, फ, ब, भ, म
दन्त्योष्ठय — व, फ़
स्वर तंत्रीय — ह
(ii) हिंदी व्यंजनों का प्रयत्न के आधार पर वर्गीकरण : प्रयत्न के आधार पर व्यंजनों के वर्गीकरण के निम्नलिखित आधार हैं :—
(क) अवरोध की प्रकृति के आधार पर :
(१) स्पर्शी :–
जब उच्चारण अवयव उच्चारण स्थान का स्पर्श करके वायु का मार्ग अवरुद्ध करता है तब जो व्यंजन उच्चारित होते हैं, ऐसे व्यंजन स्पर्शी व्यंजन कहे जाते हैं । हिंदी में क – वर्ग, ट – वर्ग, त – वर्ग तथा प – वर्ग के पहले चार व्यंजन स्पर्शी व्यंजन है ।
(२) संघर्षी :–
कुछ व्यंजनों के उच्चारण में उच्चारण अवयव इतना ऊपर नहीं उठते है कि वे उच्चारण स्थान का स्पर्श कर सकें । वे उनके इतने निकट आ जाते हैं कि वायु दोनों के बीच से घर्षण करती हुई निकलती है । ऐसे व्यंजन संघर्षी व्यंजन कहे जाते हैं । हिंदी में स, श, ष, ह तथा आगत व्यंजन ख, ग, ज़ तथा फ़ संघर्षी व्यंजन है ।
(३) स्पर्श संघर्षी :
जिन व्यंजनों के उच्चारण में स्पर्श तथा संघर्ष दोनों प्रयत्न होते हैं, ऐसे व्यंजन स्पर्श संघर्षी व्यंजन कहे जाते हैं । उच्चारण अवयव उच्चारण स्थान को स्पर्श करने के बाद इतने निकट रह जाते हैं कि वायु घर्षण करती हुई ही बाहर निकलती है । हिंदी में च – वर्ग के सभी व्यंजन इसी कोटि में आते हैं ।
(४) अंत:स्थ :
इस कोटि में अर्ध-स्वर, लुंठित तथा पार्श्विक व्यंजन आते हैं :—
अर्ध-स्वर : इनके उच्चारण में जीव स्वरों की तुलना में अधिक ऊपर उठती है पर इतना ऊपर नहीं उठती कि वायु का मार्ग अवरुद्ध हो सके । हिंदी के ‘य’ तथा ‘व’ व्यंजन अर्ध-स्वर है ।
लुंठित : जब जीभ की नोक मुख के मध्य भाग में आकर बार-बार आगे पीछे गिरती है तो इस प्रकार उच्चारित व्यंजन लुंठित कहे जाते हैं । हिंदी में ‘र’ व्यंजन लुंठित ध्वनि का उदाहरण हैं ।
पार्श्विक : जीभ की नोक मुख के बीच में आकर एक ओर या दोनों ओर पार्श्व (खिड़की) बनाती है और वायु इन्हीं पार्श्व से होकर बाहर निकलती है । हिंदी की ‘ल’ व्यंजन पार्श्विक ध्वनि का उदाहरण है ।
उत्क्षिप्त : उत्क्षिप्त व्यंजनों के उच्चारण में जीभ ऊपर उठकर पहले मुर्धा को स्पर्श करती है और फिर तुरंत झटके से नीचे गिरती हैं । हिंदी के ‘ड़’ तथा ‘ढ’ व्यंजन इसके उदाहरण हैं ।
(ख) स्वर तंत्रियों के कंपन के आधार पर :
सघोष तथा अघोष व्यंजन : हम सबके गले में स्वरतंत्रिया होती हैं । जब फेफड़ों से निकलकर आने वाली वायु इनसे टकराती है तो ये झंकृत हो जाती है और इनमें कंपन उत्पन्न होती है । कंपन के फलस्वरूप कभी ये परस्पर निकट आ जाती हैं तो कभी दूर हो जाती हैं । जिस समय ये निकट होती है उस समय इनकी झंकार की अनुगूँज (घोष) भी मुख तक जाने वाली वायु में सम्मिलित हो जाती हैं । इस समय जो व्यंजन उच्चारित होते हैं उन्हें सघोष व्यंजन कहा जाता है ।
जिन व्यंजनों में स्वरतंत्रिया परस्पर दूर रहती है अत: उनकी अनुगूँज शामिल नहीं हो पाती, उन्हे अघोष व्यंजन कहा जाता है ।
हिंदी में वर्ग के प्रथम दो व्यंजन अघोष हैं और शेष तीनों सघोष :
अघोष : क ख, च छ, ट ठ, त थ, प फ
सघोष : ग घ ङ, ज झ ञ, ड ढ ण, द ध न, ब भ म
(ग) श्वास की मात्रा के आधार पर :
अल्पप्राण तथा महाप्राण : जिन व्यंजनों के उच्चारण में मुख से कम मात्रा में श्वास निकलती है । वे अल्पप्राण कहे जाते हैं तथा जिन व्यंजनों के उच्चारण में मुख से अधिक मात्रा में श्वास निकलती है । वे महाप्राण कहे जाते हैं ।
हिंदी में वर्ग के प्रथम तथा तृतीय अल्पप्राण तथा द्वितीय एवं चतुर्थ व्यंजन महाप्राण है :
अल्पप्राण : क ग, च ज, ट ड, त द, प ब
महाप्राण : ख घ, छ झ, ठ ढ़, थ ध, फ भ