कबीर के काव्य में निहित व्यंग्य और जीवन मूल्यों का विवेचन कीजिए, IGNOU MHD – 01 (हिंदी काव्य)

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Kabir ke Kavya me Nihit Vyangya aur Jivan Mulyo ka Vivechan Kijiye

कबीर के काव्य में निहित व्यंग्य और जीवन मूल्यों का विवेचन कीजिए ।

MHD – 01 (हिंदी काव्य)

कबीर के काव्य में निहित व्यंग्य और जीवन मूल्यों का विवेचन कीजिए ।

उत्तर :  कबीर के काव्य में व्यंग्य : कबीरदास अदैत्यवाद के समर्थक तथा निर्गुण भक्ति शाखा के प्रवर्तक माने जाते हैं । कबीर धर्म गुरु थे ।इसीलिए उनकी वाणियों का आध्यात्मिक रस ही आस्वाद्य होना चाहिए । समाज सुधारक के रूप में , सर्व  धर्मसमन्वयकारी के रूप में , हिंदू – मुस्लिम ऐक्य  विधायक के रुप में , विशेष सम्प्रदाय के प्रतिष्ठाता के रूप में , और वेदांत व्याख्याता दार्शनिक के रूप में भी उनकी चर्चा कम नहीं हुई है  ।

भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था । वे वाणी के डिक्टेटर थे । जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया बन गया है तो सीधे-सीधे , नहीं तो दरेरा देकर ।

भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार सी नजर आती है । उसमें मानो ऐसी हिम्मत ही नहीं है कि वह इस लापरवाह फक्कड़ की किसी फरमाइश को नहीं कर सके । असीम अनंत ब्रह्मानंद में आत्मा का साक्षीभूत होकर मिलना कुछ वाणी के अगोचर पकड़ में ना आ सकने वाली ही बात है ।

पर ‘बेहदी मैदान में रहा कबीरा’ में ना केवल उस गंभीर निगूढ़ तत्व को मूर्तिमान कर दिया है , बल्कि अपनी फक्कडा़ना प्रकृति की मुहर भी मार दी गयी है । और फिर व्यंग्य करने तथा चुटकी लेते भी कबीर अपना प्रतिद्वंदी नहीं जानते । पंडित और काजी , अवधू और जोगिया , मुल्ला और मौलवी सभी उनके व्यंग्य से तिलमिला जाते हैं । अत्यंत सीधी भाषा में वे ऐसी चोट करते हैं कि चोट खानेवाला केवल धूल झाड़ के चल देने के सिवा और कोई रास्ता ही नहीं पाता ।

कबीरदास सामाजिक कुरीतियों , ऊंच – नीच , अस्पृश्यता एवं वाह्य आडंबरो के खिलाफ आवाज उठायी । धर्म के धंधेबाजों को उन्होंने आड़े हाथों लिया । पथभ्रष्ट पंडितों एवं मूल्लाओं को सही मार्ग पर लाने का प्रयास किया:

“कर में माला सूरत न हरी में ,

यह कहो सुमिरन कैसा ,   

बाहर भेष धार कर बैठे ,

अंदर पैसा पैसा ”

जनसाधारण को धर्मांध बनाने वाले पंडित और मूल्ला  से कबीर सार्वजनिक रूप से प्रश्न पूछते हैं । कबीर के प्रश्नों की तर्कशक्ति में गहरा व्यंग्य छुपा रहता है |

  “पढ़ि – पढ़ि पंडित करू चतुराई ,

  निज मुक्ति मोहिं कहुं समुझाई ।

   कहॅं बस पुरुष कहॉं सो गाऊॅं ,

   पंडित मोहिं सुनावहु नाऊॅं ” ।।

हे पंडित ! तुम शास्त्र पढ़ पढ़ कर चतुराई करते फिरते हो और लोगों के बीच मुक्ति के विषय में उपदेश झाड़ते हो । जरा मुझे भी तो समझाओ कि तुमने मुक्ति का स्वयं क्या अनुभव किया है ?  लोगों को तो यह बताते हो कि मुक्ति परम पुरुष से मिलन है — लेकिन मुझे यह तो बताओ कि वह परम पुरुष कहां वास करता है ?उसका गांव कहां है ? उस परम पुरुष का नाम क्या है ?

 ” पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पुजूं पहाड़ ।  

ताते ये चक्की भली पीस खाय संसार ” ।।

कबीर मूर्ति पूजा का विरोध करते हुए हिंदुओं से कहते हैं कि पत्थर की देवमूर्ति की तुलना में चक्की कहीं बेहतर है , जो रोजाना आटा पीसने के काम आती है ।निर्जीव पत्थर को लोग परम ब्रह्म परमेश्वर के रूप में सत्य मान बैठे हैं , जबकि अपने भीतर अवस्थित आत्मचेतना को , आत्मसत्ता को पहचानने – स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है ।

मुसलमानों की कुर्बानी को वे ढोंग बताते हुए कहते हैं कि:

” दिन भर रोजा रखत है रात हनत है गाय ” ।

 कबीर मुसलमानों पर व्यंग्य कहते हैं कि ———

“कांकड़ पाथर जोड़ि कै मस्जिद लई  चुनाय  !

 या चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय ” !!

खुदा सर्वव्यापक हैं तो फिर जोर से पुकारने का क्या मतलब ? क्या वह बहरा है  ? काजी की कथनी और करनी में अंतर का उल्लेख कर कबीर कहते हैं ——

“कबीर काजी स्वादि बसि , ब्रम्ह हतै तब दोइ  !

चढ़ि मसीति एकै कहें , दरि क्यों सॉंचा होइ ” !!

जब काजी स्वाद के वशीभूत होकर जीव का वध करता है , उस समय वह ब्रह्म को द्वैत की दृष्टि से देखता है – अर्थात अपने लिए एक ब्रह्म और जीव के लिए दूसरा ब्रह्म । किंतु मस्जिद पर चढ़कर जब ‘ ला इलाहा इल्लल्लाह की घोषणा करते हुए बांध देता है तो वह यह ऐलान कर रहा होता है कि ब्रह्म एक है ईश्वर के दरबार में काजी क्या सफाई देगा?

इसी प्रकार कबीर कहते हैं कि ‘चंचल चित्त्  तथा चोर मन’ लेकर तीर्थ जाने वाले व्यक्ति का एक भी पाप नहीं कटता बल्कि उसके मन पर दस और लद जाते  हैं  । कबीर ने अपनी कविताओं के माध्यम से दोनों को फटकारा है —-

“हिंदू कहें मोहि राम पियारा ,तुरक कहैं रहिमान !  

आपस में दोउ लरि मूए , मरम न काहू जान “!!

कबीरदास ने धार्मिक और जातीय भेदभाव का विरोध किया है । उन्होंने कहा है कि संसार में बड़ा वही है जिनके कर्म अच्छे हैं ——

” ऊॅंचे कुल का जनमिया , करनी उॅंच न होय  !

  सुबरन कलस सुरा भरा , साधु निन्दे सोय ” !!

इसी प्रकार कबीर ने मूर्ति-पूजा , तीर्थ-यात्रा , व्रत- उपवास आदि समाज में प्रचलित आडंबरों और अंधविश्वासों का विरोध किया है । जैसे ——

“जो काशी तजै कबीरा , रामै कौन निहोरा रे ” !

” जस कासी तस मगहा , ऊसर ह्रदय राम जो होई” !!

मन को वश में रखकर और ईश्वर को सर्वव्यापक मानकर अपने-अपने आचरण को सुधारने पर उन्होंने विशेष आग्रह किया है । तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए कबीर के काव्य का अधिकांश भाग उनके समाज सुधार के विचारों से भरा हुआ है , परंतु कबीर एक समाज सुधारक ही नहीं बल्कि एक सफल धार्मिक नेता भी थे ।

कबीर के जीवन मूल्य :

कबीर नाथपंथी योगी परिवार में पले बढ़े थे । ये नाथपंथी न तो हिंदू माने जाते थे , और ना ही मुसलमान । नाथपंथी लोग हिंदुओं और मुसलमानों के बाह्याचार , धार्मिक पाखंड , जात-पात की कट्टरता , सामाजिक रूढ़िवाद और धार्मिक अंधविश्वासों के विरुद्ध भारत में आंदोलन चला रहे थे । नागपंथियों में गृहस्थ लोग होते हुए भी आंदोलन का नेतृत्व वैरागियों और फकीरों के हाथ में था ।

वे स्वेच्छा से गरीबी का , सादगी का , और सांसारिक सुखों से विरक्त संतों का जीवन जीते थे । सांसारिक सुखों से वैराग्य की भावना , जीवन की क्षणभंगुरता के बोध , जगत को काल का चबेना कहने की प्रवृत्ति , मानवीय समानता की पुकार , ह्रदय की शुद्धता , धार्मिक रूढ़िवाद के खंडन तथा निर्गुण ब्रह्म की सच्ची प्रीति कबीर में व्याप्त थी ।

*कबीर के रहस्यवाद और एकेश्वरवाद की दर्शन की कसौटी पर परखना सर्वथा गलत है । कबीर ऐसे एकेश्वरवाद की स्थापना करते हैं , जिसमें ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण तो है परंतु सारे धार्मिक अनुष्ठानों को नकारा गया है । कबीर के लिए ईश्वर से एकाकार होने का अर्थ मनुष्यों का एक होना है और इसीलिए वहां शुद्धता और छुआछूत की प्रथा को संपूर्ण रुप से स्पष्ट शब्दों में नकारा गया है तथा सब तरह के अनुष्ठानों को अस्वीकार किया गया है ।

**कबीर के सिद्धांत थे कि ईश्वर के सामने सभी मनुष्य फिर वे ऊॅंची जाति के हों अथवा नीची जाति के— समान हैं , उनके आंदोलन का ऐसा केंद्र बिंदु बन गया जिसने पुरोहित वर्ग और जाति प्रथा के आतंक के विरुद्ध संघर्ष करने वाले आम जनता के  व्यापक हिस्सों को अपने चारों ओर एकजुट किया ।

***कबीर एक समाज सुधारक ही नहीं बल्कि एक सफल धार्मिक नेता भी थे । अपने सिद्धांतों के लिए इन्होंने किसी संप्रदाय का सहारा नहीं लिया बल्कि अपने समय में प्रचलित सभी संप्रदायों से कुछ ना कुछ ग्रहण करके अपनी स्वतंत्र विचारधारा बनाई ।इसीलिए एकेश्वरवाद के अनुयायी होते हुए भी कबीर को ईश्वर का दशरथ पुत्र राम नहीं कहा जा सकता और उन्हें ना ही मुसलमानों का खुदा ही कहा जा सकता है । वह तो बस “कबीर का राम” है वह कोई अवतारी नहीं है ——

“ना दशरथ घर औतारी आवा

ना लंका का राम सतावा “!

 वह तो निर्गुण और सगुण से परे अवाच्य स्वरूप है ।इसी भांति आत्म – जगत , माया – मुक्ति आदि के संबंध में भी कबीर ने अपने स्वतंत्र विचार व्यक्त किए हैं , जिनके कारण वे एक सफल विचारक और धार्मिक संत के रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं ।

कबीर की सर्वाधिक लक्ष्य होने वाली विशेषताएं हैं :

(१) सादगी और सहजभाव पर निरंतर जोर देते रहना।

(२) बाह्य धर्माचारों की निर्मम आलोचना करना और ।

(३) सब प्रकार के विरागभाव और हेतुप्रकृतिगत अनुसंधान के द्वारा सहज ही गलत दिखने वाली बातों को  दुर्बोध्य और महान बना देने वाली चेष्टा के प्रति वैर भाव  । कबीरदास के इस गुण से सैकड़ों वर्ष से उन्हें साधारण जनता का नेता और साथी बना दिया है । वे केवल श्रद्धा और भक्ति के पात्र ही नहीं बल्कि प्रेम और विश्वास के आस्पद भी बन गए हैं ।

वे केवल श्रद्धा और भक्ति के पात्र ही नहीं बल्कि जनता उनसे प्रेम भी अधिक करती है । इसीलिए उनके संत रूप के साथ कवि रूप बराबर चलता रहता है , वे केवल नेता और गुरु ही नहीं है, बल्कि साथी और मित्र भी हैं ।

कबीर एक उच्चकोटि के मानवतावादी विचारक रहे हैं । कबीर के जीवन में जो बातें लोक परस्पर जॅंचती है , भगवान के विषय में उनका विरोध दूर हो जाता है । लोक में ऐसे जीव की कल्पना नहीं की जा सकती है , जो कर्णहीन होकर भी सब कुछ सुनता हो, चक्षुरहित बना रहकर भी सब कुछ देख सकता है ।वाणीहीन होकर भी वक्ता हो सकता है ।

जो छोटा से छोटा और बड़े से बड़ा भी हो , जो एक भी हो और अनेक भी हो । कबीर को ऊपर – ऊपर सतह पर चक्कर काटने वाला समुंद्र भले ही पार कर जाए , पर उसकी गहराई की थाह नहीं पढ़ सकते हैं । कबीर की सच्ची महिमा तो कोई गहरे पानी में गोता लगाने वाला ही समझ सकता है   ।

कबीर ने मानवीय धर्म के आधार पर अपनी प्रेम साधना के मार्ग पर चलने के लिए विभिन्न धर्म संप्रदायों में प्रचलित ऐसे कर्मकांडो तथा आचारों का विरोध किया है , जो पाखंडवत हो गये हैं ।सामाजिक अपराधों को करने वाला व्यक्ति तीर्थ यात्रा करता है  । यह उसी प्रकार हैं जैसे ज्ञान के बिना घाट के बीच डूब जाना ।

*कबीर के अनुसार व्यक्ति जप ,तप , नियम , संयम और पूजा अर्चना करके भी जीवन का सही मार्ग नहीं पाता । इस भटकाव में हिंदू मूर्ति पूजा करके और तुर्क हज जाकर जीवन गवा देते हैं ।उनका कहना है —- “जिसका दुरुस रहे ईमान” वही सच्चा धार्मिक हिंदू या मुसलमान है !

**कबीर के अनुसार धर्म का सच्चा आधार ग्रहण कर व्यक्ति साधारण जीवन में सार्थक होता है , उसके लिए काबा काशी और राम रहीम हो जाता है । केवल वेश बनाने से कोई व्यक्ति सत्य को नहीं पा सकता ।कबीर कर्म पर बल देते हैं , क्योंकि जीवन को ठीक दिशा देने के लिए सत्तकर्म अपेक्षित है । उनके अनुसार ” चंचल  चित , तथा चोर मन लेकर तीर्थ जाने वाले व्यक्ति एक भी पाप नहीं कटता , बल्कि उसके मन पर दस और लद जाते हैं ।

***कबीर ने सांसारिक जीवन के मानवीय मूल्यों का निरूपण किया है , उसकी असमानताओं , असंगतियों तथा अन्यायपूर्ण व्यवहारों की कटु आलोचना की है ।उनकी दृष्टि में जाति – पाति का भेद भाव सामाजिक मूल्य दृष्टि से निरर्थक है , क्योंकि अंततः जीवन का चरण लक्ष्य परम – तत्व की खोज है। यह सब सांसारिक भेदभाव है , वस्तुत सभी प्राणी उस परम तत्व रूप है ।

***कबीर जीवन भर दूसरों की भलाई के लिए रोते रहें , और विलाप करते रहे हैं ——

“सुखिया सब संसार है , खावे अरू सोवै !

 दुखिया दास कबीर हैं , जागे अरू रोवै ” !!

कबीर सांसारिक ऐश्वर्या के प्रति सतर्क करते हुए कहते हैं कि मनुष्य को इन सबका गर्व नहीं करना चाहिए , क्योंकि सर्प जिस प्रकार केचुल छोड़ता है , उसी प्रकार आज या कल इस सब को छोड़कर जाना है । सारा प्रताप चार दिवस का रहता है ।

इस संसार में ना कोई धन लाया है और ना यहा से लेकर जाएगा। माया – मोह के कारण लोग झूठ ही ‘मेरा घर’ कहते हैं। जैसे चंदन के समीप बांस उनकी गंध नहीं ग्रहण कर पाता और पानी के प्रेम का भाव हरा वृक्ष की पाता है, सुखा काठ नहीं । स्मरण रखना है कि ज्ञानी वही है , जो नि:संग भाव से अपने जीवन में इंद्रियों को वश में करके कर्म मार्ग पर चलता है ।

कबीर का प्रधान लक्ष्य एकता और समता स्थापित करना है । उनकी कथनी और करनी में अंतर नहीं होता । कबीर एक सच्चे मानवतावादी पुरुष थे । और वे निरंतर सत्य के मार्ग पर आगे बढ़ते थे  ।

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