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पद्मावत की काव्यगत विशेषताएं बताइए (Padmavat ki Kavyagat Visheshtaye)
MHD – 01 (हिंदी काव्य)
पद्मावत की काव्यगत विशेषताएं बताइए ।
उत्तर : पद्मावत की काव्यगत विशेषताएं :
पद्मावत मलिक मुहम्मद जायसी की अमर रचना है , जो अपने आप में एक मार्मिक प्रेम कहानी है । जायसी के पद्मावत में ना सिर्फ एक विशेष जीवन दृष्टि है , बल्कि एक स्पष्ट सामाजिक सांस्कृतिक समन्वय भी हैं । जायसी कवि थे, जायसी में अपने स्वाधीन चिंतन और प्रखर बौद्धिक चेतना के लक्षण मिलते हैं ।
जायसी को एक ओर सूफी होने के प्रमाणस्वरूप पद्मावत को एक और तरह से हथियार बनाया जाता है । वह यह है कि पद्मावत मनसवी शैली में लिखा गया एक प्रेमाख्यानक काव्य है । जिसमें प्रेम और युद्ध को समान महत्व दिया गया है ।
पद्मावत एक लौकिक प्रेम काव्य है , इसीलिए जायसी की कविता में व्यक्त प्रेम का स्वरूप सूफीमत के प्रचलित प्रेम से अलग है । यही कारण है कि उनका प्रेम मानवीय संवेदनाओं से भरा हुआ है । पद्मावत को कुछ संकेतों के आधार पर उसे सूफी काव्य मानना ठीक नहीं है।
जब किसी कवि को किसी खास संप्रदाय से जोड़ दिया जाता है और तब साहित्यिकों में एक भ्रमपूर्ण धारणा जड़ जमा लेती हैं , तो उसे तोड़ना आसान नहीं होता है । जायसी एक कवि थे , किसी सूफी संप्रदाय से उनका संबंध नहीं था । यह अलग बात है कि पद्मावत के कुछ थोड़े से स्थल सूफी सिद्धांतों के अनुकूल है अन्यथा समूचा पद्मावत एक लौकिक प्रेम काव्य है ।
जायसी के व्यक्तित्व के दो रूप हैं । जन्म से मुस्लिम होने के कारण जायसी की इस्लाम और हजरत मुहम्मद में आस्था स्वभाविक है । जायसी का कवि व्यक्तित्व है , जहां वे सिर्फ कवि है– प्रेम और विरह के कवि । यहा न तो वे मुसलमान हैं और ना ही सूफी । वे प्रेम में आहत है , इसलिए उनके पद्मावत काव्य में बोल , अभिव्यक्ति में प्रेम और विरह की तीव्र वेदना है —-
“जेही के बोल विरह के छाया !
कछु तेही भूख कहा तेहि छाया” !!
पद्मावत काव्य में जायसी ने “प्रेम की पीर , रकत की लेई” और नैन जल से भींगी गाढ़ी प्रीति की भी चर्चा की है । जायसी किसी मत मतान्तर के चक्कर में न पड़कर स्वच्छंद रूप से प्रेम को नया स्वरूप दे रहे थे , इसलिए जायसी की कविता में व्यक्त प्रेम का स्वरूप सूफीमत के प्रचलित प्रेम से अलग है । यही कारण है कि उनका प्रेम मानवीय संवेदनाओ से भरा हुआ है ।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल भी सूफीमत के आधार पर पद्मावत की व्याख्या करते समय पद्मावत के प्रेम और विरह खासतौर से नागमती वियोग खंड में काफी रम गये हैं । नागमती वियोग खंड में एक स्त्री की कोमल भावनाओं का मार्मिक चित्रण हुआ है । इसे शुक्ल जी ने भी माना है ।
इसीलिए जायसी को सूफी कवि मानकर पद्मावत में रतनसेन पद्मावती के लौकिक प्रेम को अलौकिक प्रेम मान लेना ठीक नहीं है । पद्मावत को जायसी ने इस दृष्टि से लिखा भी नहीं है । इसे केवल संयोग ही कहा जाएगा कि जायसी मुसलमान थे , लेकिन वे इस्लाम धर्म से ऊपर उठे हुए सार्वभौमिक प्रेम के कवि थे । पद्मावत में उन्होंने ऐसी घटनाओं का विधान किया है जो लोकोत्तर है या यर्थाथपरक । लेकिन यह घटनाएं अविश्वसनीय नहीं है ।
हीरामन का आदमियों की तरह बोलना , शिव – पार्वती द्वारा रतनसेन को सिद्धि गुटिका देना , समुंद्र द्वारा रतनसेन को पांच अमूल्य रत्न देना आदि अनेक घटनाएं लोकोत्तर है । जो केवल लोककथाओं में ही मिलती हैं । जायसी प्रेम के कवि हैं । पद्मावत में उनकी मुख्य चिंता है प्रेम के लौकिक रूप को व्यापक और कालातीत बनाना ।
साही जी ने ठीक ही लिखा है कि “जायसी का प्रस्थान बिंदु ईश्वर है न कोई नया नया अध्यात्म । उनकी चिंता का मुख्य ध्येय मनुष्य है । इसीलिए जायसी ने अपनी कविता के केंद्र में मनुष्य को रखा है , वह मनुष्य जो सुख में उल्लासित होता है और दुख में रोता है । वह सच भी बोलता है और झूठ भी ।
इर्ष्या – द्वेष सभी मनवांछित भाव उसमें निहित है । प्रेम में वह सब कुछ भूल जाता है । जायसी ने इसी मनुष्य के प्रेम को महाकाव्यात्मक गरिमा प्रदान की है । जायसी के उस प्रेम काव्य में सिर्फ प्रेम नहीं , ट्रेजेडी भी है ।जिसको सुनकर हर आदमी तिलमिला जाता है ——
“मुहम्मद कवि जो प्रेम का , ना तन रकत ना माँसु ।
जेई मुख देखा तेही हॅंसा , सुना ते आये ऑंसू ” ।।
उसी तरह , आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि नागमती का विरह वर्णन हिंदी साहित्य में एक अद्वित्य वस्तु है । नागमती उपवनों के पेड़ों के नीचे रात भर रोती फिरती हैं । इस दशा में पशु , पक्षी , पेड़ , पल्लव जो कुछ सामने आता है , उसे वह अपना दुखड़ा सुनाती है । वह पुण्य दशा धन्य है , जिसमें ये सब अपने सगे लगते हैं और यह जान पड़ने लगता है कि इन्हें दुख सुनाने से ही जी हल्का होगा ।
जायसी के लिए प्रेम की पूर्णता दुख और वियोग है अर्थात दुख में ही सुख निहित है । प्रेम के मार्ग में दुख में सुख का दर्शन जायसी का मौलिक दर्शन नहीं है , फिर भी जायसी ने उसे जीवंतता प्रदान की है । प्रेम में निराशा को वे फिजूल मानते हैं । सच्चा प्रेम है तो मिलन होगा ही चाहे मृत्यु के बाद ही क्यों ना हो ।—–
” बसे मीन जल धरती , अम्बा बसै आकाश ।
जौं पिरीत पै दुवौ मॅंह, अंत होही एक पास “।।
पद्मावत मानवीय प्रेम , करुणा , उत्साह और उसकी ट्रेजेडी को निरूपित करने वाला काव्य है ।अपनी मूल प्रकृति में पद्मावत को एक त्रासदी मानने वाले आलोचक के अनुसार जायसी की चिंता का मुख्य ध्येय मनुष्य है । यह प्रेम और युद्ध की कविता है । इस कथा को इतिहास मानना भूल होगी । वास्तव में पद्मावत न तो किसी मत को प्रतिपादित करने वाला काव्य है और ना ही उसका कवि किसी संप्रदाय का प्रचारक ।
अधिकांश आलोचक पद्मावत को दो भागों में विभाजित करके उसका मूल्यांकन करते हैं — रतनसेन को सिंहलदीप यात्रा से लेकर पद्मिनी के साथ पुनः चित्तौड़ लौटने तक पूर्वाद्ध और राघवचेतन के निकाले जाने से लेकर पद्मावती के सती होने तक उत्तरार्द्ध । रतनसेन का हीरामन तोते से पद्मावती के रूप सौंदर्य को सुनकर योगी के वेश में सोलह हजार योगियों के साथ सिंगलदीप जाना पद्मावती को प्राप्त करने के लिए अनेक प्रकार के कष्टों को सहन कर वापसी में समुंद्र का कोपभाजन बनकर बिछुड़ना आदि कथाएं परी – कथाओं जैसी है । पद्मावत लोकगाथा के आधार पर रचा गया जायसी का लौकिक काव्य है , जिसमें मनुष्य प्रेम , उत्साह , घृणा और संभावनाओं के साथ संघर्ष करता है , हारता है , जीतता है ।
किसी को यहा मोती मिलता है तो किसी को घोंघा और सेवार , जिसे अपनी अभिलाषित वस्तु नहीं मिलती वह एक मुट्ठी धूल उठाकर यह कहने पर मजबूर हो जाता है कि यह दुनिया झूठी है —–
” छार उठाइ लीन्ह एक मुट्ठी ।
दीन्ह उड़ाई , पिरथिमी झूठी ” ।।
इस तरह पद्मावत का पूर्व भाग पूरी तरह लोक गाथात्मक है , किंतु पद्मावत लोकगाथा नहीं है , एक काव्य है , जिसमें कवि की एक विशेष जीवन दृष्टि है ।यही जीवन दृष्टि इसे लोकगाथा होने से बचाती है ।
पद्मावत के लोक गाथात्मक रूप को समझाने के लिए उनके कुछ महत्वपूर्ण अंशों को देखना जरूरी है । सबसे पहले नागमती वियोग वर्णन को लिया जा सकता है । नागमती का वियोग वर्णन इतना प्रभावशाली था कि जायसी इसे छोड़ नहीं सके और पद्मावत में उन्होंने उसके द्वारा नागमती का जितना मार्मिक चित्रण किया उतना कोई कवि नहीं कर पाया ।
जायसी प्रेम के कवि है । उन्होंने इस प्रेम की विशद व्यंजना पद्मावत में ही की है । पद्मावत का यह प्रेम त्रिआयामी है । एक तरफ नागमती और दूसरी तरफ पद्मावती है । इन दोनों के केंद्र में रतनसेन है । नागमती का चरित्र एक साधारण औरत और पत्नी का चरित्र है। तथा पद्मावती का चरित्र एक प्रेमिका का है ।
प्रेमिका होकर और अपने प्रेमी से युक्त होकर भी पद्मावती में वह तड़प नहीं है जो एक साधारण औरत के रूप में नागमती में विद्यमान हैं । नागमती का चरित्र लोकगाथाओं की गृहस्थ स्त्रियों जैसा है । संभवत: इसीलिए जायसी का कवि नागमती की भाव दशा में ज्यादा रमा है और इसीलिए जायसी नागमती के वियोग वर्णन को विशेष रूप से चित्रित करने में सफल हुए हैं । विरह दशा में प्रेम अपनी संपूर्णता में परिलक्षित होता है । प्रेम है तो वियोग भी होगा । प्रेम में वियोग और रस दोनों हैं , जैसे मधु मख्खी के छत्ते में शहद और बर्रे दोनों रहते हैं ।
नागमती के वियोग वर्णन के वक्त जायसी की मनोदशा एक लोक कवि जैसी हो गयी है और नागमती खंड लोककाव्य । नागमती विरह की आग में तपकर अपने सारे गौरव – गर्व को भूल जाती है और अपनी सौत के पास पक्षी के भिजवाए संदेशों में कहती है कि यद्यपि मैं रतनसेन की ब्याहता हूं , किंतु मुझे भोग से कोई वास्ता नहीं है । मैं तो उन्हें अपनी आंखों से देखना चाहती हूं ।
” पद्मावती सौ कहेहु बिहंगम ।
कंत लोभाइ रही करि संगम ।।
तोहि चैन सुख मिलै सरींरा ।
मो कहॅं दिए दुंद दुख पूरा ।।
हमहु बिआही सॅंग ओहि पीऊ ।
आपुहिं पाइ , जानु पर जीऊ ।।
मोहिं भोग सौं काज न बारी ।
सौंह दिसि्ट सब कै चाहनहारी ।।
नागमती की यह सहृदयता और त्याग की पूरी अवधारणा लोक साहित्य की है । जायसी ने इसे लोक परंपरा से ग्रहण किया है । वास्तव में नागमती वियोग खंड की पूरी संरचना लोकगाथाओं से प्रेरित है ।
पद्मावती यहॉं एक राजकुमारी नहीं बल्कि एक सामान्य घर की लड़की हो गई है , जो यह मन्नत मांगती है कि अगर मेरे योग्य वर से मेरी शादी हो जाएगी तो मैं आपकी पूजा करूंगी —-
“बर सौं जोग मोहि मेरवहु , कलस जाति हौं मानि ।
जेही दिन हींछा पूजै , बेगी चढ़ावहु आनि “।।
पद्मावती का एक राजकुमारी की अपेक्षा एक सामान्य स्त्री के रूप में यहॉं जितना स्वाभाविक चित्रण हुआ है वह अन्यत्र दुर्लभ है । तात्पर्य यह है कि पद्मावत की पूरी संरचना लोकगाथात्मक है , इसीलिए इसमें इतनी सजीवता , मार्मिकता और सरसता है ।
जायसी की भाषा :
*जायसी की भाषा पर विचार कर लेना आवश्यक है , क्योंकि भाषा ही तत्व है , जिसके द्वारा भावों और विचारों को अभिव्यक्त किया जा सकता है। यह सर्वविदित है कि जायसी ने अपने पद्मावत और अन्य काव्य ग्रंथों की रचना अवधि में की है । इसीलिए उनकी भाषा में लोकजीवन की भाषा है ।
**जायसी ने पद्मावत का रूप विधान लोक- कथात्मक रखा है ।रसात्मकता के संचार के लिए प्रबंधात्मकता का जैसा घटनाक्रम होना चाहिए , पद्मावत का वैसा ही है । पद्मावत की कथा दो विरोधी प्रकृति की घटनाओं के बावजूद सुगठित हैं और उसमें प्रभाव भी हैं ।
उपसंहार :
जायसी प्रेमपंथ के अनुयायी हैं । जायसी ने पद्मावत में यह दर्शाया है कि नागमती और पद्मावती में प्रेम की तीव्रता है तो रतनसेन में भी यह कम नहीं है । जायसी ने पद्मावत में दोहरे प्रेम को बहुत अच्छी तरह निबाहा है ।
जायसी के लिए प्रेम की पूर्णता दुख और वियोग है अर्थात दुख में ही सुख निहित है । प्रेम के मार्ग में दुख में सुख का दर्शन जायसी की मौलिक दर्शन नहीं है , फिर भी जायसी ने उसे जीवंतता प्रदान की है ।अर्थात वे प्रेम पथ के सच्चे बटोही हैं । इसीलिए पद्मावत को उन्होंने उसी तरह समझने का आग्रह किया है , जिस रूप में वह लोक में प्रचलित है ।
“प्रेमकथा यहि भांति बिचारहु ।
बुझि लेहू जौ बूझेहु पारहु ” ।।
जायसी के कथा प्रवेश में काव्य के चार संकेत मिलते हैं :
(१) पहला, पद्मावत की कथा आदि से अंत तक जुड़ी हुई है ।
(२) दूसरा, कथा की बनावट में दो भुजाओं वाला एक संतुलन है । इस संतुलन के सहारे कथा पूर्णता को प्राप्त करती है ।
(३) तीसरा, कथा के भावात्मक अर्थ में केवल प्रेम की पीर ही नहीं है , युद्ध भी है ।
(४) चौथा, यश और कीर्ति वाला पुरुष धन्य है ।
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