बिहसि लखनु बोले मृदबानी (Bisahi lakhanu bole mridbani), IGNOU MHD – 01 (हिंदी काव्य)

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बिहसि लखनु बोले मृदबानी (Bisahi lakhanu bole mridbani)

IGNOU MHD – 01 (हिंदी काव्य)

1. निम्नलिखित प्रत्येक काव्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए:

ग) बिहसि लखनु बोले मृदबानी। अहो मुनीसु महा भटमानी॥

पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फँकि पहारू॥

इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि डरि जाहीं॥

देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥

भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी ॥

सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरे कुल इन्ह पर न सुराई॥

बधे पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारे॥

कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥

प्रसंग :

प्रस्तुत पद्यांश ‘ रामचरितमानस ‘ के बाल खंड से अवतरित हैं  । इसके रचयिता  कवि कुल कुमुद कलाधर कविता कानन केसरी संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी हैं ।

संदर्भ :

प्रस्तुत कविता लक्ष्मण एवंम परशुराम संवाद का एक अंश है । शिवधनुष  भंग के  बाद परशुराम  क्रोधित हो गए , उनके क्रोध को  प्रज्वलित करने तथा अस्तित्व का आभास कराने के उद्देश्य से लक्ष्मण ने यह बातें कही थी ।

व्याख्या : 

धनुष भंग की ध्वनि सुनकर परशुराम जनकपुर पहुंचे और शिवधनुष को टूटा हुआ देखकर  बहुत क्रोधित हुए और बोले कि हे जनक यह  शिवधनुष किसने तोड़ा है ? उसे दिखाओ  नहीं तो मैं पृथ्वी को पलट डालूंगा  ।

लक्ष्मण  परशुराम के क्रोध और अहंकार को  देख कर बोल उठे कि  हे मुनि आप अपने को बहुत बड़ा योद्धा समझते हैं , और मुझे  बार  – बार कुठार दिखाते हैं । फुकने से पहाड़ नहीं उड़ता है अर्थात किसी को  बात से नहीं बल्कि बल और पराक्रम से पराजित किया जाता है । यहॉं कोई  कुम्हरे  की बत्तिया नहीं जो तर्जनी को देखकर मर जाएगा ।  आप के कुठार और बाण को देखकर  मैं यह उक्ति स्वाभिमान से कह रहा हूं  ।

भृगुशुत  परशुराम जी से लक्ष्मण  बोले कि  हे मुनि  मैं आपकी बातों को सोच रहा हू , समझ रहा हू , और अपने क्रोध को रोककर ही कह रहा हू। देवता , ब्राह्मण और संतों का हमारे रघुवंश में अपमान नहीं होता बल्कि उन्हें देवता समझा जाता है।

हे  ब्राह्मण , आप को मारने से पाप लगेगा और पराजित होने से रघुकुल की मर्यादा कलंकित होगी । आपको  मारने पर भी हमें आपके  पांवों की पूजा ही करनी होगी । इसलिए आपके ब्रज के समान कठोर बातो , उपहासों  को सह  रहा हू। आप जैसे योद्धा जो क्रोध और अहंकार से परिपूर्ण है । यह धनुष बाण और कुठार  शोभा नहीं देता । आप इसे व्यर्थ ही धारण कर रखे हैं ।

हे  ब्राह्मण यदि मैं कुछ गलत कह रहा हू  या अनुचित बोल रहा हू तो मुझे क्षमा करें  । लक्ष्मण की इन तीखी अपमानजनित और स्वाभिमान पूर्ण बातों को सुनकरके  परशुराम आग बबूला हो उठे और लक्ष्मण की बातों का प्रतिकार करते हुए बोले ।

भाषा – शैली :

(१) यह काव्य अवधी भाषा में लिखा हुआ है । दोहा, चौपाई, सोरठा, छंद का प्रयोग किया गया है ।

(२) भाषा सरल, सरस साहित्यिक, सारगर्भित, मनोवैज्ञानिक और प्रसंगा अनुरूप है जो पात्रों की भावनाओं को व्यक्त करने में सफल है ।

(३) अलंकारों के प्रयोग से भाषा सजीव और प्रभावपूर्ण हो गयी है ।

विशेष  :

(१) ब्राह्मणवाद की प्रधानता है।

(२) काव्य में संतों के स्वभाव का वर्णन है ।

(३) काव्य में सामंती राजतंत्र का वर्णन है ।

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