IGNOU MHD – 07 NOTES
रूपिम की संकल्पना पर विचार कीजिए । (प्रश्नों के उत्तर 1000 – 1000 शब्दों में दीजिए ।)
उत्तर : रूपिम :
व्याकरणिक संरचना के पाँच स्तरों में दो को हम रूप – विज्ञान कहते हैं । जो रूपों की चर्चा के साथ रूपों से शब्दों की रचना का अध्ययन करता है। भाषा की संरचना के संदर्भ में ये दृष्टव्य है कि अर्थहीन ध्वनियों सेे रूप नामक सार्थक ध्वनियों से खण्डों की रचना होती है । इन रूपों से शब्दों का निर्माण किया जाता है। अर्थयुक्त भाषा की शुरुआत रूपों से ही होती है।
रूपों से मूल शब्द, व्युत्पन्न शब्द, संयुक्त शब्द और समस्त शब्द आदि की रचना होती है। इस तरह रूप विज्ञान भाषा में शब्द रचना का परिचय देने वाला प्रारंभिक स्तर है।
जब एक रूप अपने परिवेश के कारण भिन्न-भिन्न रूपों में आते हैं। तब उसे रूपिम की संज्ञा दी जाती है। जैसे ‘उत’ उपसर्ग के कई रूप हैं:
सत् (सत्पुरुष), सद् (सद्भाव), सन् (सन्मार्ग), सच् (सच्चरित्र)
ये चारों केवल स्वनिमिक दृष्टि से भिन्न है, प्रकार्य और अर्थ की दृष्टि से एक है। सत् के चारों रूपों का एक ही अर्थ है – ‘अच्छा’! ‘अच्छा’ के अर्थ में (सत्) एक रूपिम है और उसके चार व्यक्त रूप रूपिम के संरूप कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में व्यक्त सभी संरूपों के समूह को रूपिम कहा जाता है।
रूपिम का अमूर्त संकल्पना है और संरूप वास्तविक, व्यक्त रूप ! इस कारण जहाँ रूप अविकारी हो, वहाँ भी हम अमूर्त रूपिम की कल्पना करते हैं, क्योंकि शब्दों की रचना रूपिमों से ही व्याख्यायित की जाती है।
रूपिम की संकल्पना की आवश्यकता क्या हैै ? रूपिम में ‘मेज’ एक संकल्पना है, अमूर्त है, इसके व्यक्त वास्तविक रूप कई हो सकते हैं। जैसे लोहे की मेज हो या लकड़ी की या पत्थर की, उसका आकार गोल, चौकोर, लंबा जो भी हो, सबको हम ‘मेज’ नाम से ही पहचानते हैं।
भाषा में भी हम निश्चित अर्थ में मूल संकल्पना को पहचान कर उसे व्यक्त रूपों के तौर पर व्यवहार में लाते हैं।
सत् +पुरुष सद् +भाव सन् +मार्ग सच् +चरित्र
संरूप 1 संरूप 2 संरूप 3 संरूप 4
रूपिम (सत्) अर्थ ‘अच्छा’
जब रूपिम तथा उसके संरूपों की पहचान कर ली जाती है तो चारों का परिवेश स्पष्ट किया जाता है। जैसे :
रूपिम संरूप परिवेश
‘सत्’ सत् — क,त,प आदि अघोष ध्वनियों से पहले,
सद् — ग,द,ब आदि घोष ध्वनियों से पहले,
सन् — न आदि नासिक्य व्यंजनों से पहले,
सच् — च से पहले
रूपिम अमूर्त है, तो ‘सत्’ रूपिम है। सबसे प्रचलित संरूप को ही रूपिम कहते हैं। जब ‘सत्’ को हम रूपिम की संज्ञा देते हैं, तो सत् के आधार पर ही रूप परिवर्तन निर्धारित करते हैं। इस कारण “त” को इस रूपिम विश्लेषण के संदर्भ में रूपस्वनिम (Morphophoneme) कहा जाता है। अर्थात सत् , उत् सभी रूपों में “त” होगा। जैसे उत्पत्ति, उद्भव आदि।
रूपिम की संकल्पना में रूपिम, संरूपों का वितरण, रूपस्वनिम आदि शब्द निर्माण तथा शब्दों के ध्वन्यात्मक रूप में सहायक होते हैं। समान नियमों के आधार पर हम प्राक, दिक, तत् आदि रूपों से बनने वाले शब्दों के रूप को असानी से समझ सकते हैं।
संस्कृत के वैयाकरणों ने रूपस्वनिमिक प्रक्रिया को संधि के नियमों से स्पष्ट किया। इस दृष्टि से कह सकते हैं कि वैयाकरणों में गहरी भाषा वैज्ञानिक सूझ थी। उनका रूप विश्लेषण अत्यंत वैज्ञानिक है।
संस्कृत के केवल दो शब्दों की संधि के संदर्भ में ही नियम बनाए गए हैं। लेकिन आधुनिक भाषाओं के विश्लेषण में कई तरह के शब्दों की रचना को समझने के लिए रूपिम की संकल्पना की आवश्यकता है।
हिंदी के बहुवचन रूपिम (ए) का वितरण है —–
रूपिम संरूप वितरण
‘ए’ पुल्लिंग शब्द -आ -ए विकारी का कारांत शब्द (जैसे लड़का आदि शब्द)
जैजै अर्थ
बहुवचन स्त्रीलिंग शब्द – एँ (i) व्यंजनांत शब्द (किताब)
(ii) आकारांत शब्द (भाषाएँ)
(i) इस चिह्न का तात्पर्य यह है कि ऐसे शब्दों में बहुवचन में कोई परिवर्तन नहीं होगा। इसे ‘शुन्य’ रूप कहा जाता है।
(ii) बहू से बहुवचन बनाते समय स्वर हृस्व हो जाता है।