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विद्यापति की रचना (Vidyapati ki Rachna)
MHD – 01 (हिंदी काव्य)
विद्यापति की रचनाओं में तत्कालीन समाज का वर्णन किस रूप में हुआ है ? सोदाहरण उत्तर दीजिए |
उत्तर : विद्यापति का युग :
सन् 1360 से 1480 के बीच विद्यापति मौजूद थे । आचार्य शुक्ल के इतिहास में शुक्ल ने विद्यापति को ना तो वीरगाथा में रखा है और ना भक्ति काल में । लेकिन यह ऐतिहासिक वास्तविकता है कि विद्यापति संक्रमण काल के कवि हैं । विद्यापति के रचनाओं की अंतकथा एवं अंतर्वस्तु पर तथा साहित्य , समाज और राजनीति के इतिहास पर ध्यान देने से संक्रमण की प्रक्रिया और विद्यापति की रचनात्मक विशेषताओं के बीच घना संबंध दिखाई पड़ता है । प्रवृत्तियों की दृष्टि से वे हिंदी साहित्य के इतिहास में न वीरगाथा के कवि हैं और ना भक्ति आंदोलन के । इन बातों से परे विद्यापति मूलत: शृंगारिक कवि हैं । इससे विद्यापति का काव्यात्मक या ऐतिहासिक महत्व कतई कम नहीं होता , बल्कि उनकी विशिष्टता ही प्रमाणित होती है कि वे युगांतर के कवि थे।
राजनीतिक परिस्थिति :
विद्यापति के समय में भारत में आमतौर से दिल्ली सल्तनत का राज था । इसे कह सकते हैं कि विद्यापति के जीवन काल में दिल्ली पर तुगलक और लोदी वंश का शासन था । भारत की जनता ने काफी पहले दिल्ली सल्तनत को स्वीकार कर लिया था , बावजूद इसके कि पूरे देश पर दिल्ली सल्तनत का प्रत्यक्ष शासन नहीं था । देशभर में फैली स्थानीय सत्ताएं सल्तनत का प्रभुत्व स्वीकार कर चुकी थी ।
प्राय: आठवीं शताब्दी से उत्तर भारत में जो राजनीतिक अस्थिरता थी , वह दिल्ली सल्तनत की स्थापना से समाप्त हो गई थी । लेकिन सत्ता के लिए संघर्ष होता रहता था । ” सत्ता के लिए होने वाले इस प्रतिद्वंदिता में सल्तनत का उद्भव एक निर्णायक तत्व के रूप में हुआ और उसने प्रादेशिक शक्तियों को बढ़ने से रोकने का प्रयत्न किया “।
अखिल भारतीय स्तर पर राजनीतिक स्थिति का एक पहलू यह था कि केंद्रीय सत्ता दिल्ली सल्तनत की थी , जो भीतरी अंतविरोध और उठापटक के बावजूद कायम थी । उसके प्रभाव से परंपरागत भारतीय राजनीति समाप्त प्राय: हो गई थी । भारतीय राजनीति और समाज में धार्मिक दृष्टि से दो समुदाय हिंदू और मुसलमान अस्तित्व में आ गए थे ।
इस नई बात से राजनीति में भी नयापन ला दिया ।यदि विद्यापति कीर्तिलता और कीर्तिपताका जैसी कृतियों की रचना नहीं करते तो शायद यह बात नहीं भी कही जाती , लेकिन यह तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति की भूमिका का रचनात्मक प्रभाव है कि विद्यापति कीर्तिलता और कीर्तिपताका की रचना की । उसी तरह मुसलमानों के आगमन के बाद राजनीतिक , सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से जो नयापन विकसित हुआ उसी की देन है अमीर खुसरो ।खुसरो और विद्यापति में फर्क यह है कि खुसरो दिल्ली में रहते थे , और विद्यापति मिथिला में ।
दिल्ली में दिल्ली सल्तनत की राजधानी थी , फलत: खुसरो का उससे सीधा लगाव था । मिथिला दिल्ली से बहुत दूर देश के पूर्वी क्षेत्र का अंग होने के कारण केंद्रीय सत्ता में होने वाले उथल-पुथल के तात्कालिक प्रभाव से दूर रही है । संस्कृत विद्या के एक केंद्र का विकास हुआ , परंतु दिल्ली सल्तनत के शासनकाल में फारसी के राजभाषा हो जाने से संस्कृत का महत्व कम हो गया और इसी कारण समाज में ब्राह्मणों का भी महत्व घट गया । मिथिला में संस्कृत भाषा साहित्य की परंपरा और ब्राह्मणों का प्रभाव कायम रहने के बावजूद विद्यापति के समय में बदलाव आया ।
हिंदू – मुसलमान का संबंध मिथिला के क्षेत्र में काफी अच्छा था , इससे यह सिद्ध होता है कि राजनीतिक अधिपत्य के बहुत पूर्व ही मिथिला में अरबी – फारसी भाषा से संपर्क हो गया था । विद्यापति की रचनाओं में समन्वय के दौर में नए दृष्टिकोण की झलक मिलती है । इस दृष्टिकोण की मुख्य विशेषता है राजनीति का धार्मिक प्रभाव से मुक्त होना ।
राजनीति धर्म से प्रेरित नहीं थी । इस प्रसंग में यही महत्वपूर्ण है कि सुल्तान ने असलान के हारने के बाद राज्य को अपने अधीन नहीं कर लिया , बल्कि तात्कालिन राजनीति का असली रूप राज्य पाने के लिए की जाने वाली साजिशों , हमलो, लड़ाईयों में देखा जा सकता है ।
इन सबके फलस्वरूप समाज को राजनीतिक अराजकता के दुष्परिणाम झेलने पड़ते थे । कीर्तिपताका में भी राजा शिवसिंह और सुल्तान का युद्ध वर्णित है । युद्ध में शिवसिंह को विजयी दिखाया गया है । इस विजय के फलस्वरूप राजा शिवसिंह की कीर्तिपताका चारों तरफ फहराती है ।
सामाजिक स्वरूप :
विद्यापति के समय में राजतंत्र राजनीति व्यवस्था कायम करने के अलावा समाज में सामंतवादी व्यवस्था की रक्षा करता था । इस तरह प्रजा का दुहरा शोषण होता था । कीर्तिलता और लिखनावली में इस बात का उल्लेख मिलता है कि मिथिला का समाज सामंतवादी था । इसीलिए सामाजिक विषमता कई रूपों में मौजूद थी । जिसकी अभिव्यक्ति राजनीति और समाज में कई तरह के होती रहती थी ।
आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से निचले तबके के लोग राजनीति सत्ता के लाभ से वो वंचित थे ही , उसके दमन के भी शिकार होते थे । तत्कालीन समाज वर्णो , जातियों और वर्गों में विभाजित था । राजनीतिक अस्थिरता का सामाजिक स्थिति पर प्रतिकूल असर पड़ता था , जिसका लाभ ऊंचे तबके के लोग ही उठाते थे और निचले तबके के लोगों का संकट बढ़ जाता था । जिससे विषमता और बढ़ ही जाती थी ।
कीर्तिलता के द्वितीय पल्लव के प्रारंभ में ही निम्नलिखित पद है , जिससे सामाजिक स्थिति का पता चलता है——
“ठाकुर ठग भए गेल चोर सरपरि घर सजि्जउ ।
दासे गोसाउनी गहिअ धम्म गए धंध निमज्जिअ ।।
खले सज्जन परिभविअ कोई नहीं होइ विचारक ।
जाति अजाति विवाह अधम उत्तम कौ पारक ।।
अर्थात राजा गणेश्वर के निधन के बाद हालत इतनी बिगड़ गई कि ठाकुर ठग हो गए , चोरों ने बलपूर्वक घरों पर कब्जा कर लिया , नौकरों ने गृह -स्वामीनियों को धर दबाया , धर्म खत्म हो गया और धंधे डूब गए , दुष्टों ने सज्जनों को दबोच लिया , कोई विचार करने वाला नहीं रहा , जाति और अजाति में विवाह होने लगे , अधम और उत्तम के भेद का विवेक करने वाला कोई नहीं बचा ।
अक्खर रस बुजिझ निहार नहि कवि कुल भूमि भिख्खरि भऊॅं ।
तिरहुति तिरोहि सबे गुणे रा गणेश जबे सगा गउॅं ।।
अर्थात अक्षर रस का मर्मज्ञ कोई नहीं बचा , कवि लोग घूम – घूम कर भिखारी हो गए । राजा गणेश्वर जब स्वर्ग चले गए तो तिरहुत के सभी गुण तिरोहित हो गए । राजा का भय खत्म हो जाने से या समाज में अराजकता छा जाने से ठगी बढ़ गई , चोरी और सीनाजोरी बढ़ गई , परिवारों में अनाचार होने लगा , धर्म के नियम गायब हो गए और अव्यवस्था के कारण व्यापार चौपट होने लगा ।
ऐसे दौर में आमतौर से निचले तबके के लोग ऊपर उठते हैं , इसीलिए उस समय के तिरहुत में भी जातीय भेदभाव पर चोट पड़ने लगी और कवियों की हालत खराब हो गई । यही हालत तो मिथिला के सामान्य समाज की थी । मैथिल समाज सामंतवादी आधार पर ही टिका हुआ था और मध्यकालीन सामंतवादी समाज के सारे दोष वहां विराजमान थे । समाज में मूलत: दो वर्गों के लोग थे , और बेगार की प्रथा थी ।
लिखनावली में विद्यापति ने सामाजिक स्थिति का वर्णन किया है । राज्य से जुड़े लोगों में विलासिता व्याप्त थी और जनता में दरिद्रता समाज में उन लोगों का सम्मान बहुत था , जो राज दरबार में सम्मिलित होते थे । गरीबों की हालत बहुत खराब थी । दासों को तो प्रतिदिन एक वक्त का आहार ही मिलता था । जाहिर है कि विद्यापति युगीन समाज वर्ग विभाजित था । राजा और सामंत प्रभुत्व में थे । व्यापारी और महाजन भी सुखी संपन्न थे ।
किसान खेत मजदूर और दास शोषित वर्ग के अंग थे ।सामाजिक विषमता और अंत – विरोध का यह मुख्य रूप था । समाज में जात पांत की थी । यह सामाजिक स्थिति है , जो विद्यापति को प्रेरित और प्रभावित करती है । विद्यापति की रचनाएं खासकर कीर्तिलता , कीर्तिपताका और लिखनावली अपने समय के जीवंत दस्तावेज हैं ।
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