विद्यापति के काव्य में श्रृंगार (Vidyapati ke Kavya me Shringar), IGNOU MHD – 01 (हिंदी काव्य)

IGNOU MHD Notes and Solved Assignments

विद्यापति के काव्य में श्रृंगार (Vidyapati ke Kavya me Shringar)

IGNOU MHD – 01 (हिंदी काव्य)

विद्यापति के काव्य में श्रृंगार :

विद्यापति के काव्य में श्रृंगार की अधिकता है । अधिकतर विद्वान काव्य में नवरस मानते हैं और उनमें भी श्रृंगार को रसराज स्वीकार किया है । साहित्य दर्पण के अनुसार अंग का अर्थ कामोंद्रेक है ,  उसके आगमन से अर्थात उत्पत्ति का कारण श्रृंगार कहलाता है ।

श्रृंगार रस के आलंबन — नायक – नायिका , उद्दीपन – सखी , मंडन हास परिहास , षट् ऋतु वर्णन , वन – उपवन , चंद्र , तारा आदि सभी प्राकृतिक एवं रमणीय वस्तुएं , अनुरागपूर्ण आंगिक ज चेष्टाएं , हाव – भाव कटाक्ष आदि अनुभाव आलस्य , मरण , उग्रता , धृति आदि अनेक संचारी भाव है । रती का लक्षण करते हुए दर्पणकार ने लिखा है –

” रतिर्मनोनुकूलेऽथे   मनस:   प्रवणायितम ” ।

अर्थात प्रिय वस्तु में प्रेमपूर्ण  उन्मुखी भाव का नाम रति है । भरत के अनुसार , संसार में जो कुछ पवित्र हैं , उत्तम है , उज्जवल है , दर्शनीय हैं , उसे श्रृंगार कह  डाला है । उत्तमता की दृष्टि से भी श्रृंगार रस का महत्व कम नहीं है ।

” गंभीर्य और तीव्रता के विचार से भी श्रृंगार भावना का ही स्थान सर्वोच्च है “।

श्रृंगार रस का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है । मानव ह्रदय के दोनों प्रकार के भाव —-  सुखात्मक एवं दुखात्मक  इसके अंतभूर्त हो जाते हैं । वहा प्रिय से संबंध रखने वाली वस्तु तक प्रिय लगती है और विपरीत अवस्था में वही दुखकारी प्रतीत होती है । श्रृंगार के दो पक्ष है — संयोग और वियोग । संयोग में आश्रय एवं आलंबन का मिलन रहता है ।

अतः वह सुखात्मक माना जाता है ।     रूपवर्णन , जल-कीड़ी , हास – परिहास , गोपन वर्णन इसके अंतर्गत आते हैं । जबकि विप्रलंभ वियोग का लक्षण है कि जहा उत्कृष्ट रति होने पर भी प्रिया का समागम न हो । यह चार प्रकार का है —पूर्वराग , मान , प्रवास तथा करुणा । साहित्य ने विप्रलंभ श्रृंगार को अधिक महत्व दिया है —कहा है !

“संगम विरह विकल्पे बरमिह विरहो न संगमस्तस्या: !    मिलने सैव यदेका त्रिभुवन मयि तन्मय विरहे:  !!

साहित्यकार मानते हैं कि संगम में प्रेम परितृप्त होकर निश्चेष्ट हो जाता है परंतु विरह में वही उद्दाम होकर ह्रदय के अंतराल में नव – नव आशा और प्राण का संचार करता  रहता है । विरह में त्रिभुवनमय  प्रेमी हो जाता है , तभी तो सूर की गोपिका पुकार उठती है कि ” उधो विरहौ  प्रेम करें ” ।

विद्यापति शृंगारिक गीतों में समर्पण और सौंदर्य की हद तक लीन है । रमण , विलास , विरह , मिलन के पक्षों को चित्रित करते हैं ।

” यौवन बिनु तन , तन बिनु यौवन , की यौवन पिय दूरे “

कहते हुए पिया के बिना तन और यौवन की सार्थकता  ही नहीं समझते । विद्यापति मनोग्राही शृंगारिक गीतों की रचना करके अंत समय में  ” तातल सैकत बारि बिंदु सम सुत रमणि समाजे ” कह देते है । जिन्होंने शृंगारिक  गीतों में नायिका को प्राणवान किया है ।

विद्यापति के संयोग और वियोग पक्ष में अंतर होता है । संयोग पक्ष में जितनी बाह्य चेष्टाओं की महत्ता रहती है , उतनी अंतर्गत के हलचल की महत्ता नहीं रहती । वियोग में प्रिय की चिंता रहती है और ह्रदय नाना प्रकार की भावनाओं का नीड़ बन जाता है। ह्रदय में नाना प्रकार के भावों का आधात – प्रतिघात होता रहता है ।

अत: कवि को भी अंतर्जगत के वर्णन का समुचित अवसर वियोग में प्राप्त हो जाता है । अतः साहित्य में सबसे प्रधान रस श्रृंगार रस है ।

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