कबीर की भाषा (Kabir ki Bhasha), IGNOU MHD – 01 (हिंदी काव्य)

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कबीर की भाषा (Kabir ki Bhasha)

MHD – 01 (हिंदी काव्य)

कबीर की भाषा :

कबीर अद्वैतवाद के समर्थक तथा निर्गुण भक्ति के प्रवर्तक माने जाते हैं । कभी धर्म गुरु थे ।इसीलिए उनकी वाणियों का आध्यात्मिक रस ही आस्वाद्द होना चाहिए । कबीर का भाषा पर जबरदस्त अधिकार था । वे वाणी के डिक्टेटर थे । जिस बात को उन्होंने जिस रूप में कहलवाना चाहा उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया — बन गया तो सीधे – सीधे , नहीं तो दरेरा देकर ।

भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार सी नजर आती है । असीम अनंत ब्रह्मानंद में आत्मा का साक्षीभूत होकर मिलना कुछ वाणी के अगोचर पकड़ में ना आ सकने वाली ही बात है । ” पर बेहदी मैदान मे रहा कबीरा ” में ना केवल उस गंभीर निगूढ़ तत्व को मूर्तिमान कर दिया गया है । और फिर व्यंग करने तथा चुटकी लेने में भी कबीर अपना प्रतिद्वंदी नहीं जानते ।

कबीर की भाषा से पंडित और काजी , अवधू और जोगिया , मुल्ला और मौलवी सभी उनके व्यंग्य से तिलमिला जाते हैं । अत्यंत सीधी भाषा में वे ऐसी चोट करते हैं कि चोट खानेवाला केवल धूल – झाड़ के चल देने के सिवा और कोई रास्ता ही नहीं पाता ।

इससे स्पष्ट है कि कबीर की वाणियों में सिर्फ शब्द भंडार की दृष्टि से ही नहीं उच्चारण भेद , वाक्यगठन , सर्वनाम तथा क्रिया पदों के प्रयोगों के लिहाज से भी कहीं पंजाबी भाषा के लक्षण प्रकट होते हैं तो कहीं राजस्थानी भाषा के , कहीं अवधी – भोजपुरी के तो कहीं खड़ी बोली के ।

कबीर की भाषा के संबंध में निर्णय की जटिलता से बचने के लिए सुगम उपाय कि कबीर की भाषा को “सधु्क्कड़ी भाषा” कहा जाए । कबीर की भाषा सधुक्कड़ी अर्थात राजस्थानी पंजाबी मिली खड़ी बोली है , पर ‘रमैनी’ और ‘सबद’ में गाने के पद है , जिनमें काव्य की ब्रजभाषा और कहीं – कहीं पूर्वी बोली का भी व्यवहार है ।

कबीर की कविता के तीन रूप है — साखी , संबंध और रमैनी ।  इन तीनों प्रकार की बानियों  में मध्यकालीन धर्म साधना , भारतीय दर्शन , इस्लाम तथा सूफीमत के पारिभाषिक शब्दों की भरमार है। कबीर की उलटबासियों ,रूपको , अन्योंक्तयों  में इन पारिभाषिक शब्दों का तात्विक अभिप्राय नयी अर्थ- भंगिमा ग्रहण कर लेता है ।

इसके अतिरिक्त प्रेम और भक्ति का संदर्भ देकर कबीर ने पारिभाषिक शब्दों के अभिप्रायों को मध्ययुग की सामाजिक आवश्यकताओं के संदर्भ में नयी प्राणवक्ता दे दी है । धर्मसाधना , दर्शन , काव्यपरंपरा , कृषि , व्यापार आदि शब्दों के बाहुल्य ने कबीर की बानियों में ताजगी , सादगी , जिंदादिली और सजीव व्यंजकता का संचार कर दिया है ।

सामाजिक तथा धार्मिक विवाद से जुड़े प्रश्नों पर कबीर की भाषा सीधी चोट करने , विरोधियों को  ममहित करने और भेद की बात को धारदार  ढंग से खोलकर रखने की अद्भुत सामर्थ्य का परिचय देती है।

कबीर की काव्यभाषा में विविधता आई है ।बातचीत – बहस , समझाने – बुझाने और तर्क – वितर्क करने वाली सीधी – सादी भाषा भी चोट और व्यंग के कारण धारदार हो गई है । पर भक्ति और प्रेम की बनियों में अजीब सी मिठास , निजी एकांत साधना की तल्लीनता और धनीभूत रसमयता है ।

*कबीर की उलटबासियों में उल्टी – पुल्टी कथन भंगिमा और अनेकार्थी प्रतीक योजना कहीं – कहीं धक्कामार चमत्कार  प्रियता का आस्वाद प्रदान करती है । कबीर का कहना है कि जो उनके पद के अर्थ को समझ कर बता देगा , उसे  मैं अपने गुरु के रूप में स्वीकार कर लूंगा ।

**कबीर को संघा भाषा में रचित उलटबासियों की यह परंपरा सिद्धो और नाथों से मिली थी । सिद्धि डिंडिपा कहते हैं बैल ब्याता है , गाय बांझ रहती है ।और बछड़ा तीनों समय दुहा जाता है । इस तरह गोरखनाथ एक पद में कहते हैं कि – जल में आग लगी , मछली पर्वत पर चढ़ गई , खरगोश जल में रहता है ।

संघा भाषा मूलत: संस्कृत ‘संघाय’ शब्द का अपभ्रष्ट रूप है , जिसका अर्थ होता है अभिप्राय युक्त भाषा । कबीर ने अपने जमाने की जीती जागती रोजमर्रा की भाषा में अपनी बनियों की रचना की है ।कबीर अपने समय की जिस दलित – पीड़ित जनता को संबोधित कर रहे थे , उसमें संतों की वाग्धारा की टकसाल से निकलने वाली बानियों पर जनसाधारण के संघर्ष और कष्ट से परिपूर्ण जीवनानुभव की गहरी छाप है ।

सत्य की आंच में तपी और ढली कबीर की काव्यभाषा में एक ओर यदि दो टूक खरापन है तो , दूसरी ओर उस जमाने में पीड़ित मानवता के लिए करुणा और गहरी आत्मीयता भी है । कबीर की काव्यभाषा में मध्यकालीन भारतीय दर्शन की भरमार है । कबीर की भाषा में ताजगी , सादगी , जिंदादिली है ।

उन्होंने अपने युग की जीती – जागती रोजमर्रा की भाषा में बनियों की रचना की है ।उनकी भाषा सत्य की आंच में तपी और ढली है ।उनकी भाषा संगीत के नाद तत्व से परिपूर्ण है ।।

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