कबीरदास की भक्ति भावना पर प्रकाश डालिए। (Kabir ki Bhakti Bhawna), IGNOU MHD Notes, B.Com Hindi Notes

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कबीरदास की भक्ति भावना पर प्रकाश डालिए। (Kabir ki Bhakti Bhawna par Prakash Daliye)

उत्तर: संत कबीरदास भक्तिकाल के निर्गुण काव्यधारा के ज्ञानमार्गी कवियों में  सबसे प्रतिभाशाली कवि है । उन्होंने राम को निर्गुण रूप में स्वीकार किया है । वे  राम के निर्गुण-निराकार स्वरूप के प्रति समर्पित थे, और उन्हीं के भक्त थे । वे निर्गुण की उपासना का संदेश देते हैं । उनकी राम भावना ब्रह्म भावना से सर्वथा मिलती है । कबीर पहले भक्त है फिर कवि है । कबीर की भक्ति अध्यात्मिक कोटि की थी, जहाँ ज्ञान और भक्ति अभिन्न बन जाते हैं । निर्गुण काव्यधारा में ब्रह्म के निराकार स्वरूप की उपासना की जाती है । कबीर के राम निर्गुण ब्रह्म है – वह कण-कण में रमने वाली वह शक्ति है, जो निर्गुण निराकार परम सत्ता के अर्थ में राम के अस्तित्व को स्वीकार किया है । राम नाम मात्र अभिव्यक्ति का माध्यम है — दशरथ पुत्र राम नहीं, राम उपासना के आलंबन के प्रति संकेत मात्र है।

सूफी संत कवियों के परमानुसार कबीर ब्रह्म राम को पति मानते थे और अपने को उनकी पत्नी या बहुरिया कहते थे । शुद्ध चैतन्य का प्रतिनिधित्व करते हुए कबीर कहते हैं कि मैंने न जन्म लूँगा न मरूँगा और न यह सामान्य जीवन ही व्यतीत करूँगा। मैं गुरु के उपदेश द्वारा प्रतिपादित परम तत्व राम में ही रमता रहूँगा । आत्म तत्व को सब कुछ बताते हुए वह कहते हैं कि वही मछली (मत्स्यावतार) है, वही कछुआ (कच्छपावतार) है । कबीरदास कहते हैं कि राम के बिना हमारा किसी प्रकार का कोई अस्तित्व नहीं है, हम न जीवित कहे जा सकते हैं और ना मरे हुए कहे जा सकते हैं । कबीरदास के राम ब्रह्म राम है । कबीर जिस राम की उपासना करते हैं, वह अविगत है, परम तत्व है और वेद-पुराण आदि  उसका मर्म नहीं जानते ।

“अविगत की गति लखी न जाइ ।

चारि वेद जाके सुमृत पुरानां, नौ व्याकरणां मरम न जाना ।”

कबीर के राम की न तो रूप रेखा है, न कोई वर्ण, वह निर्भय, निराकार, अलख-निरंजन, वर्ण-अवर्ण से परे, सृष्टि और लय से परे हैं । वह लोक और वेद दोनों से परे हैं । कबीर की कविताओं में निरूपित यह सर्वव्यापी अगोचर परम तत्व ही सृष्टि का कर्ता है । कबीर के निर्गुण राम कृपालु है । भक्तों के लिए करुणानिधान है, दुखभंजन और प्रतिपालक है। हमारे राम सर्वव्यापी विश्व चेतना स्वरूप है, न कि दशरथि  राम होकर सगुण व्यक्त रूप है —

“दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना ।  राम  नाम  का  मरम  न जाना ।”

कबीर निर्गुण-निराकार, अरूप-अगोचर परमसत्ता राम के भक्त थे । कबीर राम नाम की साधना को बहुत कठिन मानते हैं —

“कबीर कठिनाई खरी सुमिरतां हरिनाम । सूली ऊपरी नट-विधा,  गिरंत नाहीं ठाम ।”

सारांश रूप में कबीर के राम सर्वथा अव्यक्त ब्रह्म है । “राम निरंजन न्यारा रे, अंजन सकल पसारा रे ।” कबीर की भक्ति भावना को हम निम्नलिखित रुप में देख सकते हैं :—

1) कबीर के निर्गुण उपासना:

कबीर ने राम को निर्गुण रूप में स्वीकार किया हैं तथा  वह निर्गुण राम की उपासना का संदेश देते हैं । “निर्गुण राम जपहुं रे भाई” उनके अनुसार राम फूलों की सुगंध से भी पतला अजन्मा और निर्विकार है । वह विश्व के कण-कण में स्थित है, उसे कहीं बाहर ढूंढने की आवश्यकता नहीं है । उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि मिल की नाभि में कस्तूरी छिपी रहती हैं और मेरे उस सुगंध का स्रोत बाहर ही ढूंढता फिरता है जबकि वह उसके भीतर ही विद्यमान रहता है । “कस्तूरी कुंडली बसै, मृग ढूंढे वन माहिं । ऐसे घट-घट राम हैं दुनिया देखे नाहिं ।”

2) राम नाम की महिमा:

कबीर ने विभिन्न नामों में राम नाम को पूरी गंभीरता से और बार-बार लिया है । उन्होंने अपने आराध्य के लिए विभिन्न नामों का प्रयोग किया है – राम, साई, हरि, रहीम आदि प्रमुख है । यह सर्वविदित तथ्य है कि  कबीर निर्गुण राम के उपासक हैं। वह बार-बार नाम  स्मरण की प्रेरणा देते हुए कहते हैं । “कबीर निर्भय राम जपु, जब लागे दीवा बाति । तेल घंटा बाती मुझे, तब सोवो दिन राति।”

3) कबीर की माधुर्य भाव की भक्ति:

माधुरी भाव की भक्ति को मधुराभक्ति या प्रेम लक्ष्णा भक्ति कहा जाता है । भक्त स्वयं को जीवात्मा एवं भगवान को परमात्मा मानकर दांपत्य प्रेम की अभिव्यक्ति जहाँ करता है, वहाँ मधुरा भक्ति मानी जाती है । माधुर्य भाव की भक्ति कबीरदास के दोहे में बखूबी देखने को मिलता है । माधुरी भाव कबीर के इस पंक्ति में देखने को मिलता है:

“आंखड़ियां झांई पड़ी पंथ निहारी निहारी ।  जीभड़ियां छाला पड़्या राम पुकारि पुकारि ।।”

आत्मा का जीव आत्मा के प्रति विरह भाव कबीर ने बड़े मनोयोग से व्यक्त किया है । प्रियतम परमात्मा की बाट जोहते-जोहते आंखों में झाई पड़ गई, राम को पुकारते पुकारते जीभ में छाला पड़ गया है ।

4) कबीर की दास्य भाव की भक्ति :

कबीर भले ही निर्गुण मार्गी भक्त कवि हो, किंतु उनमें दास्य भाव की भक्ति दिखाई देती है । भक्ति के लिए अपने उपास्य के प्रति अनन्य भावना होनी चाहिए, बिना शर्त उत्सर्ग की भावना, आत्मसमर्पण । कबीर की बानियों में यह अनन्य भावना इस सीमा तक है कि वे कहते हैं — हे गुसाई ! मैं तुम्हारा गुलाम हूँ, मुझे बेच दो । सारा तन-मन-धन तेरा है और तेरे लिए ही है । राम ही ग्राहक और राम ही सौदागर है । कबीर तो तन मन धन न्योछावर कर अपने को अपने राम पर कुर्बान कर चुके हैं । वह प्रभु को स्वामी एवं स्वयं को दास, सेवक या गुलाम कहते हैं — ” मैं गुलाम मोहिं बेचि गुसाई । तन-मन-धन मेरा रामजीक ताई । आनि कबीरा हाटि उतारा, सोई गाहक सोई बेंचनि हारा । बेचैं राम तो राखै कौन, राखै राम तो बेचैं कौन।

निष्कर्ष :

कबीर की भक्ति भावना में प्रेम को आकर्षक और प्रभावी महत्व दिया गया है । उनका मानना है कि मानव प्रेम में भी ईश्वर की कृपा होती है ।और कण-कण में समाया राम ही मानवतावादी दृष्टिकोण का प्रेरणाधार है । कबीर राम के सच्चे भक्त थे । कबीर  भक्ति की महिमा गाते नहीं अघाते । भक्ति के बिना  जीवन को व्यर्थ बताते हैं । कबीर की भक्ति सहज है । वे ऐसे मंदिर के पुजारी हैं, जिसकी फर्श हरी-हरी घास, जिसकी दीवारें दसों दिशाऍं हैं, जिसकी छत नीले आसमान की छतरी है, और साधना स्थान सभी मनुष्य के लिए खुला है । कबीर की भक्ति में एकाग्रता, साधना, मानसिक पूजा अर्चना, मानसिक जाप और सत्संगति का विशेष महत्व दिया गया है । कबीर की भक्ति में सभी मनुष्य के लिए समानता की भावना है । यह भक्ति ईश्वर के दरबार में सबकी समानता और एकता की पक्षधर है । इस प्रकार कबीर की भक्ति भावना बहुत ही अद्भुत है ।

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