BA, BSC and B.Com 1st Sem Hindi Solved Question Paper 2019 | Dibrugarh University

Dibrugarh University AECC 2 1st Sem Hindi Solved Question Paper 

BA, BSC and B.Com 1st Sem Hindi Solved Question Paper 2019

1 SEM TDC HING (CBCS) AECC 2

2019 (December)

HINDI (Modern Indian Language)

Paper: AECC-2

( हिन्दी काव्य एवं गद्य साहित्य )

Full Marks: 40/50 Pass Marks: 16/20

Time: 2 hours

(1). निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर पूर्ण वाक्य में दीजिए: 1*4=4

(क) कबीरदास के गुरु का नाम क्या था?

उत्तर: कबीरदास के गुरु का नाम स्वामी रामानंद था ।

(ख) ‘अज्ञेय’ का पूरा नाम क्या है?

उत्तर: ‘अज्ञेय’ का पूरा नाम सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ हैं ।

(ग) ‘यही सच है’ कहानी का कहानीकार कौन है?

उत्तर: ‘यही सच है’ कहानी का कहानीकार “मन्नू  भंडारी” है ।

(घ) ‘कछुवा धरम’ किस प्रकार का निबंध है ?

उत्तर: ‘कछुवा धरम’ व्यंग्यात्मक निबंध है ।

(2) निम्नलिखित में से किन्ही चार प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में दीजिए:  2*4=8

(क) श्रीकृष्ण की किस बाल-अवस्था को देखकर माता यशोदा बार-बार नंद को बुलाती है ?

उत्तर: श्रीकृष्ण किलकारी मारते घुटनों के बल चलते आ रहे हैं। श्रीनन्द जी के मणिमय ऑंगन में वह अपना प्रतिबिम्ब पकड़ने के लिए दौड़ रहे हैं । श्याम कभी अपने प्रतिबिम्ब को देखकर उसे हाथ से पकड़ना चाहते हैं । किलकारी मारकर हॅंसते समय उनकी दोनों दतुलियाँ बहुत शोभा देती है । वह बार-बार उसी  प्रतिबिंब को पकड़ना चाहते हैं । बाल – विनोद के आनंद को देखकर माता यशोदा बार-बार श्रीनन्द जी को वह आनन्द देखने के लिए बुलाती है ।

(ख) ‘ऑंसू’ में प्रसाद ने किसे लक्ष्य करके अपनी विरह-वेदना का वर्णन किया है?

उत्तर: ‘ऑंसु’ वेदना प्रधान काव्य है । ‘ऑंसू’ आधारभूत रूप से वेदना का काव्य है, लेकिन व्यष्टि का दुख कैसे समष्टि के कल्याण में परिणत अथवा उस ओर प्रेरित करने वाला हो सकता है । ‘ऑंसू’ जो एक प्रेमकथा या विरह कथा का आभास देती है । ‘ऑंसू’ में प्रसाद ने प्रेम संवेदना को लक्ष्य करके अपनी विरह – वेदना का वर्णन किया है ।

(3) सप्रसंग व्याख्या कीजिए:      2*6=12

(क) सीस जटा, उर बाहु बिसाल, बिलोचन लाल, तिरीछी-सी भौंहैं ।

तून सरासन बान धरे, ‘तुलसी’ बन मारग में सुठी सोहैं ।

सादर बारहिं बार सुभाय चितैं तुम त्यौं हमरो मन मोहैं।

उत्तर: संकेत: सीस जटा, उर बाहु बिसाल ————————- ‘तुलसी’ बन मारग में सुठी सोहैं ।

प्रसंग:

प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य पुस्तक हिंदी साहित्य संकलन के ‘वन- मार्ग में’ शीर्षक कविता “कवितावली” काव्य से उद्धृत है । इसके रचयिता सगुणमार्गी तथा रामभक्ति काव्यधारा के सबसे प्रतिभाशाली एवं लोकप्रिय कवि गोस्वामी तुलसीदास जी हैं । “कवितावली” तुलसीदास जी का प्रसिद्ध एवं श्रेष्ठ खंडकाव्य है ।

संदर्भ:

प्रस्तुत छंद में कवि ने ग्राम वधूओं के माध्यम से  श्रीराम  के मधुर रूप का वर्णन किया है । तथा सीता के प्रति श्रीराम के आदर भावना से मोहित इन ग्राम  वधूओं का उनके बीच के संबंध को जानने की उत्सुकता पर प्रकाश डाला गया है ।

व्याख्या:

श्रीराम  सीता और लक्ष्मण के साथ वन में जा रहे थे । मार्ग में एक गांव के पास से गुजरते हैं, तब ग्रामीण  वधूऍं  श्रीराम के अनुपम रूप को देख मुग्ध हो जाती  हैं । वे सीता जी से प्रश्न पूछने लगती है कि वह जो दिव्य पुरुष है, जिसके सिर में जटाऍं सुशोभित है ।

जिनका वक्षस्थल तथा भुजा विशाल है, जो आकर्षण का केंद्र है । उनकी लाल-लाल ऑंखें और तिरछी भौंहें मनोहारणी है, जो धनुष-बाण और तरकस धारण किए हुए वन मार्ग में अत्यंत सुंदर दिख रहे हैं । तथा वन  मार्ग में चलते समय श्रीराम आदर के साथ बार-बार अपनी पत्नी सीता की ओर देखकर सबको मुग्ध कर रहे हैं, और जिसे देख हमारा मन आकर्षित हो रहा है।

यहाँ कवि यह कहना चाहते है कि श्रीराम अपनी पत्नी के प्रति जिस आदर भावना का प्रदर्शन कर रहे हैं, उससे मोहित ग्रामीण वधूऍं उत्सुकतावश सीता जी से पूछती है कि आखिर मे वह साँवरे से दिखने वाले पुरुष आपके कौन है ? तथा वे दिव्य पुरुष आपके क्या लगते हैं ? ग्रामीण वधूऍं सब कुछ जानते हुए भी सीता जी से इस प्रकार के प्रश्न पूछती है ।

विशेष :

(1) छंद – इस पद में सवैया छंद हैं ।

(2) अलंकार – यह अनुप्रास अलंकार का प्रयोग हुआ है ।

(3) रस – इसमें श्रृंगारपरक अद्भुत रस की अनुभूति होती है ।

(4) भाषा – शुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है ।

(5) शैली – पाठ्य मुक्तक काव्य में भावपूर्ण चित्रात्मक शैली है ।

(6) गुण –  माधुर्य गुण प्राप्त होता है ।

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4. (क) कबीरदास की भक्ति भावना पर प्रकाश डालिए । (8)

उत्तर: संत कबीरदास भक्तिकाल के निर्गुण काव्यधारा के ज्ञानमार्गी कवियों में  सबसे प्रतिभाशाली कवि है । उन्होंने राम को निर्गुण रूप में स्वीकार किया है । वे  राम के निर्गुण-निराकार स्वरूप के प्रति समर्पित थे, और उन्हीं के भक्त थे । वे निर्गुण की उपासना का संदेश देते हैं । उनकी राम भावना ब्रह्म भावना से सर्वथा मिलती है । कबीर पहले भक्त है फिर कवि है ।

कबीर की भक्ति अध्यात्मिक कोटि की थी, जहाँ ज्ञान और भक्ति अभिन्न बन जाते हैं । निर्गुण काव्यधारा में ब्रह्म के निराकार स्वरूप की उपासना की जाती है ।

कबीर के राम निर्गुण ब्रह्म है – वह कण-कण में रमने वाली वह शक्ति है, जो निर्गुण निराकार परम सत्ता के अर्थ में राम के अस्तित्व को स्वीकार किया है । राम नाम मात्र अभिव्यक्ति का माध्यम है — दशरथ पुत्र राम नहीं, राम उपासना के आलंबन के प्रति संकेत मात्र है। सूफी संत कवियों के परमानुसार कबीर ब्रह्म राम को पति मानते थे और अपने को उनकी पत्नी या बहुरिया कहते थे ।

शुद्ध चैतन्य का प्रतिनिधित्व करते हुए कबीर कहते हैं कि मैंने न जन्म लूँगा न मरूँगा और न यह सामान्य जीवन ही व्यतीत करूँगा। मैं गुरु के उपदेश द्वारा प्रतिपादित परम तत्व राम में ही रमता रहूँगा । आत्म तत्व को सब कुछ बताते हुए वह कहते हैं कि वही मछली (मत्स्यावतार) है, वही कछुआ (कच्छपावतार) है ।

कबीरदास कहते हैं कि राम के बिना हमारा किसी प्रकार का कोई अस्तित्व नहीं है, हम न जीवित कहे जा सकते हैं और ना मरे हुए कहे जा सकते हैं । कबीरदास के राम ब्रह्म राम है ।

कबीर जिस राम की उपासना करते हैं, वह अविगत है, परम तत्व है और वेद-पुराण आदि  उसका मर्म नहीं जानते ।

“अविगत की गति लखी न जाइ ।

चारि वेद जाके सुमृत पुरानां,

नौ व्याकरणां मरम न जाना ।”

कबीर के राम की न तो रूप रेखा है, न कोई वर्ण, वह निर्भय, निराकार, अलख-निरंजन, वर्ण-अवर्ण से परे, सृष्टि और लय से परे हैं । वह लोक और वेद दोनों से परे हैं । कबीर की कविताओं में निरूपित यह सर्वव्यापी अगोचर परम तत्व ही सृष्टि का कर्ता है । कबीर के निर्गुण राम कृपालु है । भक्तों के लिए करुणानिधान है, दुखभंजन और प्रतिपालक है। हमारे राम सर्वव्यापी विश्व चेतना स्वरूप है, न कि दशरथि  राम होकर सगुण व्यक्त रूप है —

 “दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना ।

 राम  नाम  का  मरम  न जाना ।”

कबीर निर्गुण-निराकार, अरूप-अगोचर परमसत्ता राम के भक्त थे । कबीर राम नाम की साधना को बहुत कठिन मानते हैं —

“कबीर कठिनाई खरी सुमिरतां हरिनाम ।

सूली ऊपरी नट-विधा,  गिरंत नाहीं ठाम ।”

सारांश रूप में कबीर के राम सर्वथा अव्यक्त ब्रह्म है । “राम निरंजन न्यारा रे, अंजन सकल पसारा रे ।”

कबीर की भक्ति भावना को हम निम्नलिखित रुप में देख सकते हैं :—

1) कबीर के निर्गुण उपासना:

कबीर ने राम को निर्गुण रूप में स्वीकार किया हैं तथा  वह निर्गुण राम की उपासना का संदेश देते हैं । “निर्गुण राम जपहुं रे भाई” उनके अनुसार राम फूलों की सुगंध से भी पतला अजन्मा और निर्विकार है । वह विश्व के कण-कण में स्थित है, उसे कहीं बाहर ढूंढने की आवश्यकता नहीं है । उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि मिल की नाभि में कस्तूरी छिपी रहती हैं और मेरे उस सुगंध का स्रोत बाहर ही ढूंढता फिरता है जबकि वह उसके भीतर ही विद्यमान रहता है । “कस्तूरी कुंडली बसै, मृग ढूंढे वन माहिं । ऐसे घट-घट राम हैं दुनिया देखे नाहिं ।”

2) राम नाम की महिमा:

कबीर ने विभिन्न नामों में राम नाम को पूरी गंभीरता से और बार-बार लिया है । उन्होंने अपने आराध्य के लिए विभिन्न नामों का प्रयोग किया है – राम, साई, हरि, रहीम आदि प्रमुख है । यह सर्वविदित तथ्य है कि  कबीर निर्गुण राम के उपासक हैं। वह बार-बार नाम  स्मरण की प्रेरणा देते हुए कहते हैं । “कबीर निर्भय राम जपु, जब लागे दीवा बाति । तेल घंटा बाती मुझे, तब सोवो दिन राति।”

3) कबीर की माधुर्य भाव की भक्ति:

माधुरी भाव की भक्ति को मधुराभक्ति या प्रेम लक्ष्णा भक्ति कहा जाता है । भक्त स्वयं को जीवात्मा एवं भगवान को परमात्मा मानकर दांपत्य प्रेम की अभिव्यक्ति जहाँ करता है, वहाँ मधुरा भक्ति मानी जाती है । माधुर्य भाव की भक्ति कबीरदास के दोहे में बखूबी देखने को मिलता है । माधुरी भाव कबीर के इस पंक्ति में देखने को मिलता है:

“आंखड़ियां झांई पड़ी पंथ निहारी निहारी ।

 जीभड़ियां छाला पड़्या राम पुकारि पुकारि ।।”

आत्मा का जीव आत्मा के प्रति विरह भाव कबीर ने बड़े मनोयोग से व्यक्त किया है । प्रियतम परमात्मा की बाट जोहते-जोहते आंखों में झाई पड़ गई, राम को पुकारते पुकारते जीभ में छाला पड़ गया है ।

4) कबीर की दास्य भाव की भक्ति :

कबीर भले ही निर्गुण मार्गी भक्त कवि हो, किंतु उनमें दास्य भाव की भक्ति दिखाई देती है । भक्ति के लिए अपने उपास्य के प्रति अनन्य भावना होनी चाहिए, बिना शर्त उत्सर्ग की भावना, आत्मसमर्पण । कबीर की बानियों में यह अनन्य भावना इस सीमा तक है कि वे कहते हैं — हे गुसाई ! मैं तुम्हारा गुलाम हूँ, मुझे बेच दो । सारा तन-मन-धन तेरा है और तेरे लिए ही है । राम ही ग्राहक और राम ही सौदागर है । कबीर तो तन मन धन न्योछावर कर अपने को अपने राम पर कुर्बान कर चुके हैं । वह प्रभु को स्वामी एवं स्वयं को दास, सेवक या गुलाम कहते हैं —

” मैं गुलाम मोहिं बेचि गुसाई ।

तन-मन-धन मेरा रामजीक ताई ।

आनि कबीरा हाटि उतारा,

सोई गाहक सोई बेंचनि हारा ।

बेचैं राम तो राखै कौन,

राखै राम तो बेचैं कौन।

निष्कर्ष :

कबीर की भक्ति भावना में प्रेम को आकर्षक और प्रभावी महत्व दिया गया है । उनका मानना है कि मानव प्रेम में भी ईश्वर की कृपा होती है ।और कण-कण में समाया राम ही मानवतावादी दृष्टिकोण का प्रेरणाधार है । कबीर राम के सच्चे भक्त थे । कबीर  भक्ति की महिमा गाते नहीं अघाते । भक्ति के बिना  जीवन को व्यर्थ बताते हैं ।

कबीर की भक्ति सहज है । वे ऐसे मंदिर के पुजारी हैं, जिसकी फर्श हरी-हरी घास, जिसकी दीवारें दसों दिशाऍं हैं, जिसकी छत नीले आसमान की छतरी है, और साधना स्थान सभी मनुष्य के लिए खुला है । कबीर की भक्ति में एकाग्रता, साधना, मानसिक पूजा अर्चना, मानसिक जाप और सत्संगति का विशेष महत्व दिया गया है । कबीर की भक्ति में सभी मनुष्य के लिए समानता की भावना है । यह भक्ति ईश्वर के दरबार में सबकी समानता और एकता की पक्षधर है । इस प्रकार कबीर की भक्ति भावना बहुत ही अद्भुत है ।

4) (ख) जयशंकर प्रसादकृत “ऑंसू” कविता का  भावार्थ लिखिए । (8)

उत्तर: ‘ऑंसू’ जयशंकर प्रसाद की महत्वपूर्ण कृति है । इसमें उदात्त प्रेम के संयोग और विशेष रुप से वियोग की भावनाओं का अत्यंत मार्मिक चित्रण हुआ है । ‘ऑंसू’ में विगत विलास की स्मृतियाँ  व्यक्त हुई है । ‘ऑंसू’ की पंक्तियों में विश्व मंगल की भावना की अभिव्यक्ति हुई है ।

‘ऑंसू’ कविता का मूल भाव है – समस्त संसार को करुणा और प्रेम की आवश्यकता को दर्शाना । यही भाव मानव को मानव बनाए हुए हैं । ‘ऑंसू’ में प्रसाद निजी वेदना को व्यापक रूप देते हुए आंतरिक तनाव को छुपाते नहीं है, वे प्रेम के  उदात्तीकरण का आदर्श उपस्थित करते हैं ।

प्रसाद के द्वंद स्पष्ट है, जहाँ व्यक्तिगत वेदना की तीव्रता भी दिखाई देती है, और एक तरह की तटस्थता भी दिखाई देती है । ‘ऑंसू’ कविता में वियोग की अनुभूति है । अतीत की कोई सुखद अनुभूति कवि के मन में खिन्नता पैदा करती है । कवि अपनी प्रेम वेदना से पृथ्वी को प्रकाशित करना चाहता है । कवि के हृदय में करुणा के भाव है, और उसके स्वरों में हाहाकार है ।

स्मृतियाँ है, संयोग के सुख की, प्रिय के मिलन की स्मृतियाँ  भी साथ है । कविता में सागर का प्रतीक मानव हृदय की जटिलताओं का प्रतीक है, परंतु मानव जीवन में इन जटिलताओं के बीच भी आनंद की अनुभूति होती है । वेदना में भी एक प्रकार का आनंद होता है । सुने ह्रदय में गहन अंधकार के क्षणों में भी करुणा के भाव मौजूद रहते हैं ।

यही भाव मानव को निराशा से जूझने की शक्ति प्रदान करते हैं। कविता में क्षितिज मुक्ति का प्रतीक है । मनुष्य का जीवन जटिलताओं से मुक्त  होना चाहता है, लेकिन मुक्त नहीं हो पाता है। इसीलिए उसके प्रयत्न बार-बार विफल होते हैं । प्रयत्न विफल होने से उसमें पागलों सी विक्षुब्धता जागती है । सुख-दुख की अनुभूति से तटस्थ होकर चेतना आनंद का अनुभव करती है ।

जटा में जिस तरह केश एक-दूसरे से उलझ जाते हैं और गुंथ जाते हैं, उसी तरह मानवीय भाव भी जीवन की जटिलताओं के बीच उलझे हुए प्रतीत होते हैं । राग-विराग से परे होकर ही मानव दिव्यता को प्राप्त करता है । “ऑंसू” हमारे भावों की उपज है । मनुष्य का हृदय भाव के बिना अधूरा है।  भाव हमारे दर्द को जगाते हैं, कवि प्रेम और करुणा जैसे भाव को उच्चतम महत्व देता है ।

इन्हीं भावों से सृजनात्मकता संभव है । सृजन अनुभव की उपज है।  श्रेष्ठ अनुभव पीड़ा से ही  उपजते हैं । इसीलिए ‘ऑंसू’ भावों के उत्तम सृजन है । कवि में सृजन की पीड़ा है। जीवन की कोई घनीभूत पीड़ा फंतासी बनकर कवि के मस्तिष्क में छायी रहती है, वही फंतासी सृजन में नई अनुभूति के रूप में प्रस्तावित होती है ।

कवि में वेदना की आकुलता और तड़प है । यह आकुलता किसी गहन अंधकार के क्षण में भावहीन दशा में कवि हृदय में उपजती है । कवि अपने जीवन में घोर निराशा के क्षणों में भी आशा को नहीं खोता है ।

इस संघर्ष के बल पर ही सभ्यता को अपनी रचना का सुंदर उपहार प्रस्तुत करता है । वह निरीक्षण भरी दृष्टि से अपने अनुभवों की आत्मलोचना करता है । और  काव्यानुभूति का निर्माण करता है। यही अनुभव कवि को विश्व भावना तक ले जाता है, यही महत्वपूर्ण है ।

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