पगडण्डियों का जमाना सारांश , हरिशंकर परसाई | Pagdandiyo ka Jamana

पगडण्डियों का जमाना सारांश

Pagdandiyo ka Jamana

हरिशंकर परसाई

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पगडण्डियों का जमाना हरिशंकर परसाई द्वारा लिखित एक लधु व्यंग्य निबंध है जिसमे उन्होंने शिक्षा क्षेत्र में व्याप्त भ्रस्टाचार को उजागर किया है।

हरिशंकर परसाई द्वारा लिखित इस व्यंग्य निबंध का विषय है शिक्षा क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार । इसी विषय को व्यंग्य का निशाना बनाया है। शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान और कौशल प्राप्त करना। ज्ञान और कौशल के बहुत से क्षेत्र हो सकते हैं। बालक जब बोलने और समझने लगता है तो उसे पाठशाला में भर्ती कराकर माता-पिता उसे शिक्षा दिलवाते हैं।

जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है उसकी सीखने की क्षमता का विकास होता जाता है। उसने पूरे साल कितना सीखा है, इसे जांचने के लिए समय-समय पर परीक्षा ली जाती है और परीक्षा में आये अंकों के आधार पर उसे आगे की कक्षा में प्रवेश दिया जाता है।

दसवीं और उसके बाद की परीक्षाओं का महत्त्व ज्यादा है क्योंकि उसमें प्राप्त अंकों के आधार पर ही विद्यार्थी को आगे की कक्षा में प्रवेश मिलता है। जिस क्षेत्र में वह पढ़ना चाहता है उस क्षेत्र में आवश्यक अंक हासिल करने पर ही उसे प्रवेश दिया जाता है। अंकों के आधार पर ही उसे नौकरी मिलती है।

इसलिए अंकों का शिक्षा के क्षेत्र में विशेष महत्त्व है। विद्यार्थी को कितने अंक प्राप्त होंगे यह उसकी साल भर की मेहनत और सीखने की क्षमता पर निर्भर करता है। लेकिन बहुत से विद्यार्थी और विशेष रूप से उनके माता-पिता अधिक अंक हासिल करने के लिए जोड़-तोड़ का सहारा लेते हैं।

उनकी कोशिश होती है कि परीक्षा का प्रश्नपत्र उन्हें पहले से मालूम हो ताकि उसीके अनुरूप और उतनी ही तैयारी करे। कुछ इस बात का प्रयत्न करते हैं कि परीक्षक तक पहुंच लगाकर परीक्षार्थी की वास्तविक योग्यता से ज्यादा अंक उन्हें मिल जाए। इसके लिए परीक्षक तक सिफारिश लगाने की कोशिश करते हैं। पेपर आउट कराने और नंबर बढ़वाने की इस प्रवृत्ति को ही हरिशंकर परसाई ने अपने इस व्यंग्य निबंध का विषय बनाया है।

‘पगडंडियों का जमाना’ शीर्षक ही इस प्रवृत्ति का सूचक है। परीक्षा में पास होने और अच्छे नंबर लाने का कोई शॉर्टकट नहीं अपनाया जाना चाहिए। अध्ययन से ही विद्यार्थी को अच्छे नंबर प्राप्त करने चाहिए। अन्य कोई तरीका नहीं अपनाया जाना चाहिए। ऐसा कोई भी तरीका अनैतिक और अन्यायपूर्ण है। वह उन विद्यार्थियों के साथ अन्याय है जो अच्छे नंबरों के लिए सिर्फ अध्ययन पर निर्भर रहते हैं। इसके बावजूद हम देखते हैं कि बहुत से विद्यार्थी और अभिभावक परीक्षा में कामयाबी के लिए गलत रास्ते चुनते हैं।

इन्हें ही लेखक ने पगडंडियां कहा है। लेखक ने सड़क और पगडंडी का रूपक अपनी बात कहने के लिए चुना है। परीक्षा में अध्ययन करके अच्छे नंबर लाना आम रास्ते की तरह है और पेपर आउट कराके या सिफारिश द्वारा नंबर बढ़वाना लेखक के अनुसार पगडंडियों का रास्ता है।

लेखक का कहना है कि आजकल लोग आम रास्ते को छोड़कर पगडंडियों को अपना रहे हैं और इसीलिए वह आजकल के ज़माने को पगडंडियों का जमाना कह रहा है। इस व्यंग्य निबंध की शुरुआत लेखक एक पौराणिक प्रसंग से करते हैं। हिंद पुराणों में ऐसे कई प्रसंग आते हैं जहां कोई व्यक्ति तपस्या करता है और उसकी कठोर तपस्या को भंग करने के लिए भगवान उसकी तरह तरह से तपस्या लेते हैं और जब वह तपस्या में उत्तीर्ण हो जाता है तो भगवान उसे वरदान देते हैं।

यहां परसाई जी ऐसे ही पौराणिक मान्यता का उपयोग करते हैं। लेखक के पास बहुत से लोग नंबर बढ़वाने के लिए आते हैं। वे एक ऐसे ही प्रसंग का उल्लेख करते हए बताते हैं कि एक दिन वह ईमानदार रहने का संकल्प करते हैं और उसी दिन एक व्यक्ति उनके पास अपने बेटे के नंबर बढ़वाने के लिए लेखक के किसी अध्यापक मित्र से सिफारिश करने के लिए कहता है। लेखक सोचता है कि उसकी परीक्षा लेने के लिए स्वयं इंद्र या विष्णु वेश बदलकर आये हैं।

इसलिए वह उस व्यक्ति को यह कहते हुए कि “मैं इसे अनुचित और अनैतिक मानता हूँ नंबर बढ़वाने से मना कर देता है। लेखक को उम्मीद होती है कि अब भगवान अपने असली रूप में प्रकट होंगे और प्रसन्न होकर उसे वरदान देंगे। लेकिन लेखक की उम्मीदों के विपरीत ऐसा कुछ नहीं होता।

लड़के का पिता नाराज होकर चला जाता है और बाद में लेखक को यह कहते हुए बदनाम करता है कि “आजकल वह साला बड़ा ईमानदार बन गया है। लेखक का नंबर बढ़ाने से इन्कार करना पूरी तरह सही था लेकिन बदले में उसे गालियां मिलती है।

लेखक इस प्रसंग के माध्यम से कहना चाहता है कि आजकल ईमानदार व्यक्ति की लोग प्रशंसा नहीं करते वरन गालियां देते हैं। इन गालियों से विचलित होकर ज्यादातर लोग ईमानदारी का रास्ता त्याग देते हैं।

एक अन्य प्रसंग का उदाहरण देते हुए बताता है कि एक ईमानदार दुकानदार अगर सही-सही हिसाब-किताब रखे तो भी उसकी ईमानदारी स्वीकार नहीं की जाती और ऐसे व्यक्ति से भी रिश्वत मांगी जाती है। तब व्यक्ति यही सोचता है कि जब ईमानदार रहकर भी रिश्वत देनी पड़ती है तो बेईमानी के रास्ते पर चलना ही क्या बेहतर नहीं है?

लेखक ने माना है कि नंबर बढ़वाने का प्रयास करने वाले सभी लोग आपराधिक मनोवृत्ति के नहीं होते। उनकी पारिवारिक और सामाजिक मजबूरियां भी काम कर रही होती है। मसलन, कोई चाहता है कि लड़का पास हो जाए तो उसकी नौकरी लग जाए। किसी को अपनी बेटी की शादी की फिक्र है तो किसी को फिक्र है कि लड़का फेल हो गया तो परिवार पर आर्थिक बोझ बढ़ जाएगा। ऐसे लोग नफरत के नहीं बल्कि दया के पात्र हैं। ये परेशान और डरे हुए लोग हैं।

लेखक सिफारिश के लिए आने वाले लोगों के बीच अंतर भी करता है। पहले लोग सिफारिश के लिए कहते हुए संकोच करते थे, बड़ी झिझक के साथ कहते थे। लक-छिपकर। कहीं इस बात की भनक किसी अन्य को न लग जाए कि शर्मिंदा होना पडे। लेकिन आजकल लोग “बेझिझक, निस्संकोच और निर्लज्जता” के साथ सिफारिश करने के लिए कहते हैं। यह अधोपतन की पराकाष्ठा है।

लेखक का कहना है कि लोगों ने मान लिया है कि आम रास्ते पर चलने में बुद्धिमानी नहीं है। पगडंडियों पर चलने में ही समझदारी है। पगडंडी यानी नंबर बढ़वाने और पेपर आउट करवाने का शार्टकट ताकि परीक्षा में अच्छे नंबर बिना मेहनत किये हासिल हो सके। मेहनत का रास्ता लोगों को कठिन लगता है। आजकल पगडंडियों पर चलने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है और इसीलिए लेखक आजकल के ज़माने को पगडंडियों का जमाना कहता है। शीर्षक इसी अर्थ में सार्थक है।

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