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घनानंद की प्रेमानुभूती (Dhananand ki Premanubhuti)
IGNOU MHD – 01 (हिंदी काव्य)
घनानंद की प्रेमानुभूती:
घनानंद रीतिकाल के एक विलक्षण कवि है। रीतिकाव्य परंपरा में घनानंद का अपना महत्व है। उनका प्रेम संबंधी दृष्टिकोण रीति कवियो से सर्वथा भिन्न है। उनकी प्रेमानुभूति स्वच्छंद है। इस स्वच्छंद प्रेमानुभूति के कारण उनका काव्य – कौशल और उनकी काव्य – भाषा सर्वथा नयी और सर्जनात्मक दिखाई पड़ती है। घनानंद की प्रेमानुभूति में बुद्धि दासी है और रीझ पटरानी है । घनानंद के प्रेम में गंभीर्य हैं ।वे प्रेम को एक सीधा स्नेहपूर्ण मार्ग मानते हैं, जहाँ तनिक भी चतुराई के लिए स्थान नहीं हैं। प्रेम के पथ पर वे ही सच्चे लोग चल सकते हैं, जो अपना सब कुछ गंवाने के तैयार होते हैं। जो कपटी हैं, बुरे आचरण वाले हैं वे इस रास्ते पर निर्भय होकर नहीं चल सकते। प्रेम की बस यही एक डगर है, दूसरी कोई नहीं –
“अति सूधों सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।
तहाँ साँचे चले तजि आपनपौ झझकैं कपटी जे निसाँक नहीं।
घनआनॅंद प्यारे सुजान सुनौ यहाँ एक तें दूसरी ऑंक नहीं ।
तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ कहौ मन लेहु पै देहु छटाँक नही ।।”
घनानंद के काव्य की इन पंक्तियों में प्रेम के सत्यनिष्ठ मार्ग के साथ-साथ प्रेमी की निष्ठुरता का भी जिक्र आया है, जो प्रिया का मन तो हर लेता है परंतु अपना मन देने में संकोच करता है। यहाँ प्रिया के समक्ष प्रेम का आदर्श रखकर कवि दिखा रहा है कि वह इसका पालन नहीं कर रहे हैं। प्रेम का मार्ग तो सीधा और सरल है । इसपर अज्ञानी से अज्ञानी व्यक्ति भी चल सकता है।
प्रिय के रूप का साक्षात्कार कर लेने से भी प्रेमी प्रसन्न होता नहीं । भगवान की छटा देखकर जैसे भक्त आश्चर्यचकित होता है, उसी प्रकार प्रेमी की बुद्धि आश्चर्यचकित हो जाती है। मती की गति रुक जाती है, कहने का सामर्थ्य नहीं रहता – क्यों करी आनंदघन लहियै संजोग सुख, ललसानि भीजि रीझि बातै न परै कहीं । प्रियतम का साक्षात्कार कर प्रिय बेसुध हो जाता है।
घनानंद के सौंदर्य चित्रण में भी एक गरिमा है जो पाठक को रस विभोर कर देता है –
“झलकै अति सुंदर आनन गौर, छके दृग राजत काननि छवै ।
हॅंसि बोलन मैं छबि फूलन की बरषा, उर ऊपर जाति है हवै ।
लट लोल कपोल कलोल करै, कल – कंठ बनी जल जावलि हवै ।
अंग अंग तरंग उठै दुति की, परिहै मनौ रूप अबै धर च्वैं ।।”
प्रियतम का गोरा मुख अत्यंत सुंदर लग रहा है, उसकी बड़ी-बड़ी ऑंखें मानो कानों को स्पर्श करना चाहती हों । जब वह हॅंसती है तो उससे सौंदर्य रुपी फूल की वर्षा होती है और वह सीधे हृदय पर गिरती है । उसकी लटें गालों से खेलती प्रतीत होती हैं । उसके गले में मोतियों की माला शोभायमान है । उसके शरीर का प्रत्येक अंग जगमगा रहा है, लगता है अभी सौंदर्य धरा पर टपक पड़ेगा । सौंदर्य का इतना सहज और यथार्थ चित्रण रीतिकाल के दूसरे कवि में नहीं मिल सकता ।
घनानंद की प्रेमानुभूतियों में प्रिया की मुस्कान, मधुर वाणी, ललक युक्त मुद्रा की स्मृति का चित्रण हुआ है । प्रिय का यह रूप उसके हृदय में बसा हुआ है । उसकी बाँसुरी बजाने की मुद्रा, उसकी हॅंसी हृदय से चाहकर भी हटती नहीं । उसकी चतुराई से देखने की कला, उसका रंगीलापन क्षण मात्र को भी भुलाया नहीं जाता । आनंद प्रदान करने वाली प्राण प्रियतम सुजान की याद आने से प्रिय अपने होश हवास खो बैठता है । प्रेम के प्रति यह पूर्ण समर्पण ही घनानंद की विशिष्टता हैं।
घनानंद प्रेम व्यापार में अंतर्मुख थे, जबकि रीतिमार्गी कवि बहिर्मुख। घनानंद ने प्रेम की उदात्तता तथा उच्चता व्यक्त करने के लिए विषम प्रेम को ही अपनाया है ।
घनानंद की दृष्टि में मानवीय प्रेम ईश्वरीय प्रेम का ही लघुत्तम अंश है। जिस प्रेम – समुद्र में राधा और कृष्ण विवश होकर स्नान केलि करते हैं। उसी की तरल तरंग में कोई बिंदु छूटकर लोक में आ गया है वहीं प्रेम है। गोपिकाओं ने अपने प्रेम का ओज इससे प्रकट कर दिया है कि भगवान श्रीकृष्ण भी उनके आगे नाचते हैं, प्रेम साधना का सर्वोत्तम स्थान ब्रज है। प्रेम का रूप अमल और अपूर्व होता है। इसकी थाह लेने में मन, बुद्धि तथा विचार थक जाते हैं।
घनानंद की प्रेम भावना में अतिंद्रिय सौंदर्य के रहस्यमय संकेत विद्यमान है। प्रेम का प्रारंभिक रूप शारीरिक है। प्रिय भले ही नाम से राधाकृष्णा हो, पर वे स्वभाव में ‘आनंद के धन’ तथा सुजान है। बादलों की तरह ही प्रिय सर्वत्र व्याप्त है। प्राणों की वह गति है। प्रिय के गुण गाते – गाते बुद्धि उसी में उलझ जाती है।
अपनी कृति ‘प्रीति पावस’ में घनानंद लिखते हैं कि आनंदधन के निकट सदा प्रेमानंद का पावस ही बना रहता है। घनानंद ने लौकिक प्रेमलीला को अलौकिक प्रेमलीला का कण कहा है, किंतु इसे कृष्ण प्रेम में छिपा रखा है।
घनानंद अपने मनोवेगों के प्रवाह में बहकर कविता लिखा करते थे। घनानंद के यहाँ प्रेम का बाह्य पक्ष इतना प्रबल नहीं है, जितना आंतरिक पक्ष क्योंकि उनकी दृष्टि ही आंतरिक है। जैसे —
“कंत रमै उर-अंतर में सु लहै नहीं क्यौं सुखरासि निरंतर ।
दंत रहैं गहैं ऑंगुरी ते जु बियोग के तेह तचे परतंतर ।
जो दुख देखति घनआनॅंद रैन-दिना बिना जान सुततंर।
जानै वेई दिन-राति, बखाने तें जाय परै दिन-राती को अंतर ।।”
घनानंद की दृष्टि प्रेमभाव की अनुभूति पर अधिक रहती थी । उसका वे काव्य में चित्रण करते थे, जिसमें प्रिय हृदय में बसे हुए हैं, फिर भी विरही को सुख का अनुभव नहीं हो रहा है । विरही की विरह – व्यथा देखकर वे भी दाँतो तले उंगली दबाते हैं, जो विरह – वेदना की ऑंच में पके हुए हैं । असल में स्वच्छंद मनोवृति वाले प्रिय के विरह में जो दुख सहन कर रही हैं, उसे दूसरा कोई समझ नहीं सकता । अगर कोई इस विरह को बताने की कोशिश भी करें तो वैसा ही होगा जैसा दिन और रात में अंतर होता है । जिसमें विरही विरह से पीड़ित है परंतु उसके विरह को वह क्या कोई भी व्यक्त नहीं कर सकता। इसे वाणी से व्यक्त नहीं किया जा सकता। यह अनुभूति हृदय की है और इसे हृदय ही अनुभव कर सकता है। इसके वर्णन में कोई शब्द नहीं बने हैं। चुपचाप सहते रहो, पर मौन रहो – यही तो घनानंद के प्रेम का आदर्श है।
घनानंद ने प्रेम व्यापार के कृत्रिम रूपों का त्याग किया है। उनकी चेतना विरह और मिलन दोनों में प्रेमियों के हृदयो के अंतस्थलों को उद्घाटित करने में ही लगी रहती है।
घनानंद की प्रेम भावना में अतींद्रिय सौंदर्य के रहस्यमय संकेत विद्यमान हैं। उनकी कविता में भौतिक प्रेम का आध्यात्मिक प्रेम में विकास होता है। घनानंद की प्रेमानुभूति स्वच्छंद है ।
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